श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 9-16

पंचम स्कन्ध: नवम अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 9-16 का हिन्दी अनुवाद


भरत जी को मानपमान का कोई विचार न था। जब साधारण नर-पशु उन्हें पागल, मूर्ख अथवा बहरा कहकर पुकारते, तब वे भी उसी के अनुरूप भाषण करने लगते। कोई भी उनसे कुछ भी काम कराना चाहते, तो वे उनकी इच्छा के अनुसार कर देते। बेगार के रूप में, मजदूरी के रूप में, माँगने पर अथवा बिना माँगे जो भी थोडा-बहुत अच्छा या बुरा अन्न उन्हें मिल जाता, उसी को जीभ का जरा भी स्वाद न देखते हुए खा लेते। अन्य किसी कारण से उत्पन्न न होने वाला स्वतःसिद्ध केवल ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मज्ञान उन्हें प्राप्त हो गया था; इसलिये शीतोष्ण, मानापमान आदि द्वन्दों से होने वाले सुख-दुःखादि में उन्हें देहाभिमान की स्फूर्ति नहीं होती थी। वे सर्दी, गरमी, वर्षा और आँधी के समय साँड़ के समान नंगे पड़े रहते थे। उनके सभी अंग हृष्ट-पुष्ट एवं गठे हुए थे। वे पृथ्वी पर ही पड़े रहते थे, कभी तेल-उबटन आदि नहीं लगाते थे और न कभी स्नान ही करते थे, इससे उनके शरीर पर मैल जम गयी थी।

उनका ब्रह्मतेज धूलि से ढके हुए मूल्यवान् मणि के समान छिप गया था। वे अपनी कमर में एक मैला-कुचैला कपड़ा लपेटे रहते थे। उनका यज्ञोपवीत भी बहुत ही मैला हो गया था। इसलिये अज्ञानी जनता ‘यह कोई द्विज है’, ‘कोई अधम ब्राह्मण है’ ऐसा कहकर उनका तिरस्कार कर दिया करती थी, किन्तु वे इसका कोई विचार न करके स्वच्छन्द विचरते थे। दूसरों की मजदूरी करके पेट पालते देख जब उन्हें उनके भाइयों ने खेत की क्यारियाँ ठीक करने में लगा दिया, तब वे उस कार्य को भी करने लगे। परन्तु उन्हें इस बात का कुछ भी ध्यान न था कि उन क्यारियों की भूमि समतल है या ऊँची-नीची अथवा वह छोटी है या बड़ी। उनके भाई उन्हें चावल की कनी, खली, भूसी, घुने हुए उड़द अथवा बरतनों में लगी हुई जले अन्न की खुरचन-जो कुछ भी दे देते, उसी को वे अमृत के समान खा लेते थे।

किसी समय डाकुओं के सरदार ने, जिसके सामन्त शूद्र जाति के थे, पुत्र की कामना से भद्रकाली को मनुष्य की बलि देने का संकल्प किया। उसने जो पुरुष-पशु बलि देने के लिये पकड़ मँगाया था, वह दैववश उसके फंदे से निकलकर भाग गया। उसे ढूँढने के लिये उसके सेवक चारों ओर दौड़े; किन्तु अँधेरी रात में आधी रात के समय कहीं उसका पता न लगा। इसी समय दैवयोग से अकस्मात् उनकी दृष्टि इन आंगिरस गोत्रीय ब्राह्मण कुमार पर पड़ी, जो वीरासन से बैठे हुए मृग-वराहादि जीवों से खेतों की रखवाली कर रहे थे। उन्होंने देखा कि यह पशु तो बड़े अच्छे लक्षणों वाला है, इससे हमारे स्वामी का कार्य अवश्य सिद्ध हो जायगा। यह सोचकर उनका मुख आनन्द से खिल उठा और वे उन्हें रस्सियों से बाँधकर चण्डिका के मन्दिर में ले आये।

तदनन्तर उन चोरों ने अपनी पद्धति के अनुसार विधिपूर्वक उनको अभिषेक एवं स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये तथा नाना प्रकार के आभूषण, चन्दन, माला और तिलक आदि से विभूषित कर अच्छी तरह भोजन कराया। फिर धूप, दीप, माला, खील, पत्ते, अंकुर और फल आदि उपहार-सामग्री के सहित बलिदान की विधि से गान, स्तुति और मृदंग एवं ढोल आदि का महान् शब्द करते उस पुरुष-पशु को भद्रकाली के सामने नीचा सिर कराके बैठा दिया। इसके पश्चात् दस्युराज के पुरोहित बने हुए लुटेरे ने उस नर-पशु के रुधिर से देवी को तृप्त करने के लिये देवीमन्त्रों से अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः