पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद
यदि किसी प्रकार राजा आदि के बन्धन से छूट भी गया, तो अन्याय से अपहरण किये हुए उन स्त्री और धन को देवदत्त नाम का कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे विष्णुमित्र नाम का कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुष से दूसरे पुरुष के पास जाते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं ठहरते। कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःख की स्थितियों के निवारण करने में समर्थ न होने से यह अपार चिन्ताओं के कारण उदास हो जाता है। कभी परस्पर लेन-देन का व्यवहार करते समय किसी दूसरे का थोड़ा सा-दमड़ी भर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस बईमानी के कारण उससे वैर ठन जाता है। राजन्! इस मार्ग में पूर्वोक्त विघ्नों के अतिरिक्त सुख-दुःख, राग-द्वेष भय, अभिमान, प्रमाद, उन्माद, शोक, मोह, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा-पिपासा, आधि-व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्न हैं। (इस विघ्न बहुल मार्ग में इस प्रकार भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमायारूपिणी स्त्री के बाहुपाश में पड़कर विवेकहीन हो जाता है। तब उसी के लिये विहार भवन आदि बनवाने की चिन्ता में ग्रस्त रहता है तथा उसी के आश्रित रहने वाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियों के मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओं में आसक्त होकर, उन्हीं में चित्त फँस जाने से वह इन्द्रियों का दास अपार अन्धकारमय नरकों में गिरता है। कालचक्र साक्षात् भगवान् विष्णु का आयुध है। वह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त क्षण-घटी आदि अवयवों से युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलने वाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थयाएँ ही उसका वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मा से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतों का निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गति में बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात् भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना छोड़कर यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियों के चक्कर में पड़कर उनके कंक, गिद्ध, बगुला और बटेर के समान आर्यशास्त्र बहिष्कृत देवताओं का आश्रय लेता है-जिनका केवल वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमों ने ही उल्लेख किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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