श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 44-49

नवम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 44-49 का हिन्दी अनुवाद


फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थन काष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशी लोक की कामना से नीचे की अरणि को उर्वशी, ऊपर की अरणि को पुरुरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया।

उनके मन्थन से ‘जातवेदा’ नाम की अग्नि प्रकट हुई। राजा पुरुरवा ने अग्नि देवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि-इन तीनों भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशी लोक की इच्छा से पुरुरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया।

परीक्षित! त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था।

परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरुरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरुरवा ने अग्नि को सन्तान रूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोक की प्राप्ति की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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