श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 16-25

द्वादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मा जी से जितने राजाओं की सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्परा को ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओं के तथा उनके वंशधरों के चरित्र का नाम ‘वंशानुचरित’ है। इस विश्व ब्रह्माण्ड का स्वभाव से ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं- नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानों ने इन्हीं को ‘संस्था’ कहा है। पुराणों के लक्षण में ‘हेतु’ नाम से जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तव में वही सर्ग-विसर्ग आदि का हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकार के कर्म कलाप में उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्य प्रधान की दृष्टि से देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृति में शयन करने वाला कहते हैं; और जो उपाधि की दृष्टि से कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृति रूप कहते हैं।

जीव की वृत्तियों के तीन विभाग हैं- जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओं में इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञ के मायामय रूपों में प्रतीत होता है और इन अवस्थाओं से परे तुरीय तत्त्व के रूप में भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसी को यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्द से कहा गया है। नाम विशेष और रूप विशेष से युक्त पदार्थों पर विचार करें तो वे सत्तामात्र वस्तु के रूप में सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असल में वह सत्ता ही उन विशेषताओं के रूप में प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्याय से शरीर और विश्व ब्रह्मण्ड की उत्पत्ति से लेकर मृत्यु और महाप्रलय पर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूप में परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य-भेद से अधिष्ठान और साक्षी के रूप में ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है। जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यास के द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण-सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियों का त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्ति में ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों के द्वारा आत्मज्ञान का उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृत्ति से निवृत्त हो जाता है।

शौनकादि ऋषियों! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानों ने इन्हीं लक्षणों के द्वारा पुराणों की यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणों से युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं। उनके नाम ये हैं- ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण, गरुड़पुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्धपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण, यह अठारह हैं।

शौनक जी! व्यास जी की शिष्य-परम्परा ने जिस प्रकार वेद संहिता और पुराण संहिताओं का अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया, वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसंग सुनने और पढ़ने वालों के ब्रह्मतेज की अभिवृद्धि करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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