श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 46 श्लोक 36-45

दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय (पूर्वार्ध)

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद

नन्दबाबा और माता यशोदानजी! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्ण को अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठ में अग्नि सदा ही व्यापक रूप से रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियों के हृदय में सर्वदा विराजमान रहते हैं।

एक शरीर के प्रति अभिमान न होने के कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टि में न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँ तक कि विषमता का भाव रखने वाला भी उनके लिये विषम नहीं है। न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही। इस लोक में उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओं के परित्राण के लिये, लीला करने के लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियों में शरीर धारण करते हैं।

भगवान अजन्मा है। उसमें प्राकृत सत्त्व, रज आदि में से एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणों से अतीत होने पर भी लीला के लिये खेल-खेल में वे सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों को स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं। जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं या मनुष्य वेग से चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तव में सब कुछ करने वाला चित्त ही है; परन्तु उस चित्त में अहंबुद्धि हो जाने के कारण, भ्रमवश उसे आत्मा - अपना ‘मैं’ समझ लेने के कारण, जीव अपने को कर्ता समझने लगता है।

भगवान श्रीकृष्ण केवल आप दोनों के ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियों के आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं। बाबा! जो कुछ देखा या सुना जाता है - वह चाहे भूत से सम्बन्ध रखता हो, वर्तमान से अथवा भविष्य से; स्थावर हो या जंगम हो, महान हो अथवा अल्प हो - ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान श्रीकृष्ण से पृथक हो। बाबा! श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तव में सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपस में बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहने पर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घर की देहलियों पर वास्तुदेव का पूजन किया, अपने घरों को झाड़-बुहारकर साफ़ किया और फिर दही मथने लगीं।

गोपियों की कलाइयों में कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहुत भली मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गले के हार हिल रहे थे। कानों के कुण्डल हिल-हिलकर उनके कुंकुम-मण्डित कपोलों की लालिमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषणों की मणियाँ दीपक की ज्योति से और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे अत्यन्त शोभा से सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं।


Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः