श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 45 श्लोक 29-41

दशम स्कन्ध: पंचचत्वारिंश अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचचत्वारिंश अध्याय श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्ग जी से संस्कार कराकर बलरामजी और श्रीकृष्ण द्विजत्व को प्राप्त हुए। उसका ब्रह्मचर्य अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करने के लिये उसे नियमतः स्वीकार किया। श्रीकृष्ण और बलराम जगत के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हीं से निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वतःसिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्य-सी लीला करके उसे छिपा रखा था।

अब वे दोनों गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से कश्यप गोत्री सान्दीपनि मुनि के पास गये, जो अवन्तीपुर उज्जैन में रहते थे। वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरु जी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरु जी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरु की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्ति से इष्टदेव के समान उनकी सेवा करने लगे। गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभाव से युक्त सेवा से बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने दोनों भाइयों को छहों अंग और उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनके सिवा मन्त्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्विध और आश्रय - इन छः भेदों से युक्त राजनीति का भी अध्ययन कराया।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओं के प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्य का - सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरु जी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्याएँ सीख लीं। केवल चौंसठ दिन-रात में ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयों ने चौंसठो कलाओं का[1] ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होने पर उन्होंने सान्दिपनी मुनि से प्रार्थना की कि ‘आपकी जो इच्छा हो, गुरु-दक्षिणा माँग लें।'

महाराज! सान्दीपनि मुनि ने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धि का अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी से सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि ‘प्रभासक्षेत्र में हमारा बालक समुद्र में डूबकर मर गया था, उसे तुम लोग ला दो।' बलराम जी और श्रीकृष्ण का पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरु जी की आज्ञा स्वीकार की और रथ पर सवार होकर प्रभासक्षेत्र में गये। वे समुद्र तट जाकर क्षण भर बैठे रहे। उस समय यह जानकार कि ये साक्षात परमेश्वर हैं, अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ। भगवान ने समुद्र से कहा - ‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंगों से हमारे जिस गुरुपुत्र को बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो।'

मनुष्य वेषधारी समुद्र ने कहा - ‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जल में पंचजन नाम का एक बड़ा भारी दैत्य जाति का असुर शंख के रूप में रहता है। अवश्य ही उसी ने वह बालक चुरा लिया होगा।' समुद्र की बात सुनकर भगवान तुरंत ही जल में जा घुसे और शंखासुर को मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चौंसठ कलाएँ ये हैं - 1- गान विद्या, 2- वाद्य-भाँति के बाजे बजाना, 3- नृत्य, 4- नाट्य, 5- चित्रकारी, 6- बेल-बूटे बनाना, 7- चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना, 8- फूलों की सेज बनाना, 9- दाँत, वस्त्र और अंगों को रँगना, 10- मणियों की फर्श बनाना, 11- शैय्या-रचना, 12- जल को बाँध देना, 13- विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, 14- हार-माला आदि बनाना, 15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना, 16- कपड़े और गहने बनाना, 17- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना, 18- कानों के पत्तों की रचना करना, 19- सुगन्धित वस्तुएँ - इत्र, तैल आदि बनाना, 20- इन्द्रजाल - जादूगरी, 21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, 22- हाथ की फुर्ती के काम, 23- तरह-तरह की खाने की वस्तुएँ बनाना, 24- तरह-तरह के पीने के पदार्थ बनाना, 25- सुई का काम, 26- कठपुतली बनाना, नचाना, 27- पहेली, 28- प्रतिमा आदि बनाना, 29- कूटनीति, 30- ग्रन्थों के पढ़ाने की चातुरी, 31- नाटक, आख्यायिका आदि की रचना करना, 32- समस्या पूर्ति करना, 33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना, 34- गलीचे, दरी आदि बनाना, 35- बढ़ई की कारीगरी, 36- गृह आदि बनाने की कारीगरी, 37- सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा, 38- सोना-चाँदी आदि बना लेना, 39- मणियों के रंग को पहचानना, 40- खानों की पहचान, 41- वृक्षों की चिकित्सा, 42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति, 43- तोता-मैना आदि की बोलियाँ बोलना, 44- उच्चाटन की विधि, 45- केशों की सफाई का कौशल, 46- मुट्ठी की चीज या मन की बात बता देना, 47- म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना, 48- विभिन्न देशों की भाषा ज्ञान, 49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों के उत्तर में शुभाशुभ बतलाना, 50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना, 51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना, 52- सांकेतिक भाषा बनाना, 53- मन में कटकरचना करना, 54- नयी-नयी बातें निकालना, 55- छल से काम निकालना, 56- समस्त कोशों का ज्ञान, 57- समस्त छन्दों का ज्ञान, 58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या, 59- द्यूत क्रीड़ा, 60- दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण कर लेना, 61- बालकों के खेल, 62- मन्त्र विद्या, 63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या, 64- वेताल आदि को वश में रखने की विद्या।

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