श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 31 श्लोक 14-21

तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद


मैं वस्तुतः शरीरादि से रहित (असंग) होने पर भी देखने में पांचभौतिक शरीर से सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहंकार) रूप जान पड़ता हूँ। अतः इस शरीरादि के आवरण से जिनकी महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुष नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्ति सम्पन्न) परमपुरुष की मैं वन्दना करता हूँ। उन्हीं की माया से अपने स्वरूप की स्मृति नष्ट हो जाने के कारण यह जीव अनेक प्रकार के सत्त्वादि गुण और कर्म के बन्धन से युक्त इस संसार मार्ग में तरह-तरह के कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अतः उन परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस युक्ति से इसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो सकता है।

मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, यह भी उनके सिवा और किसने दिया है; क्योंकि स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों में एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंश से विद्यमान हैं। अतः जीवरूप कर्मजनित पदवी का अनुवर्तन करने वाले हम अपने त्रिविध तापों की शान्ति के लिये उन्हीं का भजन करते हैं।

भगवन्! यह देहधारी जीव दूसरी (माता के) देह के उदर के भीतर मल, मूत्र और रुधिर के कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्नि से इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलने की इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है। भगवन्! अब इस दीन को यहाँ से कब निकाला जायेगा? स्वामिन्! आप बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभु ने ही इस दस मास के जीव को ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धों! इस अपने किये हुए उपकार से ही आप प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोड़ने के सिवा आपके उस उपकार का बदला तो कोई दे भी क्या सकता है।

प्रभो! संसार के ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धि के अनुसार अपने शरीर में होने वाले सुख-दुःखादि ही अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपा से शम-दमादि साधन सम्पन्न शरीर से युक्त हुआ हूँ, अतः आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धि से आप पुराणपुरुष को अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकार के आश्रयभूत आत्मा की भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ। भगवन्! इस अत्यन्त दुःख से भरे हुए गर्भाशय में यद्यपि मैं बड़े कष्ट से रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूप में गिरने की मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि उसमें जाने वाले जीव को आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीर में अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाम में उसे फिर इस संसारचक्र में ही पड़ता होता है। अतः मैं व्याकुलता को छोड़कर हृदय में श्रीविष्णु भगवान् के चरणों को स्थापित कर अपनी बुद्धि की सहायता से ही अपने को बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्र के पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकार के दोषों से युक्त यह संसार-दुःख फिर न प्राप्त हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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