श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 12-28

तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 12-28 का हिन्दी अनुवाद


तू पैदल वीरों का सरदार है, इसलिये अब निःशंक होकर-उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करने का प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओं के आँसू पोंछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असभ्य है-भले आदमियों में बैठने लायक नहीं है।

मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जब भगवान् ने रोष से उस दैत्य का इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्प के समान क्रोध से तिलमिला उठा। वह खीझकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोध से क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्य ने बड़े वेग से लपककर भगवान् पर गदा का प्रहार किया। किन्तु भगवान् ने अपनी छाती पर चलाई हुई शत्रु की गदा के प्रहार को कुछ टेढ़े होकर बचा लिया-ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्यु के आक्रमण से अपने को बचा लेता है। फिर जब वह क्रोध से होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेग से उसकी ओर झपटे।

सौम्यस्वभाव विदुर जी! तब प्रभु ने शत्रु की दायीं भौंह पर गदा की चोट की, किन्तु गदायुद्ध में कुशल हिरण्याक्ष ने उसे बीच में ही अपनी गदा पर ले लिया। इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपस में अपनी भारी गदाओं से प्रहार करने लगे। उस समय उन दोनों में ही जीतने की होड़ लग गयी, दोनों के ही अंग गदाओं की चोटों से घायल हो गये थे, अपने अंगों के घावों से बहने वाले रुधिर की गन्ध से दोनों का क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरह के पैतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौ के लिये आपस में लड़ने वाले दो साँडों के समान उन दोनों में एक-दूसरे को जीतने की इच्छा से बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।

विदुर जी! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और माया से वराह रूप धारण करने वाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वी के लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने वहाँ ऋषियों के सहित ब्रह्मा जी आये। वे हजारों ऋषियों से घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भय नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करने में भी समर्थ है और उसके पराक्रम को चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायण से इस प्रकार कहने लगे।

श्रीब्रह्मा जी ने कहा- देव! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणों की शरण में रहने वाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओं तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचाने वाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जोड़ का और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करने वाले वीर की खोज में समस्त लोकों में घूम रहा है। यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरंकुश है। बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँप से खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें। देव! अच्युत! जब तक यह दारुण दैत्य अपनी बल-वृद्धि वेला को पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमाया को स्वीकार करके इस पापी को मार डालिये। प्रभो! देखिये, लोकों का संहार करने वाली सन्ध्या की भयंकर वेला आना ही चाहती है। सर्वात्मन्! आप उससे पहले ही इस असुर को मारकर देवताओं को विजय प्रदान कीजिये। इस समय अभिजित् नामक मंगलमय मुहूर्त का भी योग आ गया है। अतः अपन सुहृद् हम लोगों के कल्याण के लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्य से निपट लीजिये। प्रभो! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है। हम लोगों के बड़े भाग्य हैं। अब आप युद्ध में बलपूर्वक इसे मारकर लोकों को शान्ति प्रदान कीजिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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