श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 35-49

चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 35-49 का हिन्दी अनुवाद


मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ। जिस प्रकार कोई कँगला किसी चक्रवर्ती सम्राट् को प्रसन्न करके उससे तुषसहित चावलों की कनी माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करने वाले श्रीहरि से मुर्खतावश व्यर्थ का अभिमान बढ़ाने वाले उच्चपदादि ही माँगे हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- तात! तुम्हारी तरह जो लोग श्रीमुकुन्दपादारविन्द-मकरन्द के ही मधुकर हैं-जो निरन्तर प्रभु की चरण-रज का ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने-आप आयी हुई सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान् से उनकी सेवा के सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते।

इधर जब राजा उत्तानपाद ने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बात पर वैसे ही विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसी के यमलोक से लौटने की बात पर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागे का ऐसा भाग्य कहाँ’। परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारद की बात याद आ गयी। इससे उनका इस बात में विश्वास हुआ। वे आनन्द के वेग से अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लाने वाले को एक बहुमूल्य हार दिया। राजा उत्तानपाद ने पुत्र का मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण, कुल के बड़े-बूढ़े, मन्त्री और बन्धुजनों को साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ों वाले सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर वे झटपट नगर के बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शंख, दुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों मांगलिक बाजे बजते जाते थे। उनकी दोनों रानियाँ- सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो राजकुमार उत्तम के साथ पालकियों पर चढ़कर चल रही थीं।

ध्रुव जी उपवन के पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथ से उतर पड़े। पुत्र को देखने के लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी-लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुव को भुजाओं में भर लिया। अब ये पहले के ध्रुव नहीं थे, प्रभु के परमपुनीत पादपद्मों का स्पर्श होने से इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे। राजा उत्तानपाद की एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्र का सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेम के कारण निकलने वाले ठंडे-ठंडे[1] आँसुओं से उन्हें नहला दिया।

तदनन्तर सज्जनों में अग्रगण्य ध्रुव जी ने पिता के चरणों में प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल-प्रश्नादि से सम्मानित हो दोनों माताओं को प्रणाम किया। छोटी माता सुरुचि ने अपने चरणों पर झुके हुए बालक ध्रुव को उठाकर हृदय से लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणी से ‘चिरंजीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया। जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचे की ओर बहने लगता है-उसी प्रकार मैत्री आदि गुणों के कारण जिस पर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं।

इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेम से विह्वल होकर मिले। एक-दूसरे के अंगों का स्पर्श पाकर उन दोनों के ही शरीर में रोमांच हो आया तथा नेत्रों से बार-बार आसुओं की धारा बहने लगी। ध्रुव की माता सुनीति अपने प्राणों से भी प्यारे पुत्र को गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अंगों के स्पर्श से उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आनन्द या प्रेम के कारण जो आँसू आते हैं, वे ठंडे हुआ करते हैं और शोक के आँसू गरम होते हैं।

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