श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 16-25

चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् शंकर ने कहा- सुन्दरि! तुमने जो कहा कि अपने बन्धुजन के यहाँ बिना बुलाये भी जा सकते हैं, सो तो ठीक ही है; किंतु ऐसा तभी करना चाहिये, जब उनकी दृष्टि अतिशय प्रबल देहाभिमान से उत्पन्न हुए मद और क्रोध के कारण द्वेष-दोष से युक्त न हो गयी हो। विद्या, तप, धन, सुदृढ़ शरीर, युवावस्था और उच्च कुल- ये छः सत्पुरुषों के तो गुण हैं, परन्तु नीच पुरुषों में ये ही अवगुण हो जाते हैं; क्योंकि इनसे उनका अभिमान बढ़ जाता है और दृष्टि दोषयुक्त हो जाती है एवं विवेक-शक्ति नष्ट हो जाती है। इसी कारण वे महापुरुषों का प्रभाव नहीं देख पाते। इसी से जो अपने यहाँ आये हुए पुरुषों को कुटिल बुद्धि से भौं चढ़ाकर रोषभरी दृष्टि से देखते हैं, उन अव्यवस्थितचित्त लोगों के यहाँ ‘ये हमारे बान्धव हैं’ ऐसा समझकर कभी नहीं जाना चाहिये।

देवि! शत्रुओं के बाणों से बिंध जाने पर भी ऐसी व्यथा नहीं होती, जैसी अपने कुटिलबुद्धि स्वजनों के कुटिल वचनों से होती है। क्योंकि बाणों से शरीर छिन्न-भिन्न हो जाने पर तो जैसे-तैसे निद्रा आ जाती है, किन्तु कुवाक्यों से मर्मस्थान विद्ध हो जाने पर तो मनुष्य हृदय की पीड़ा से दिन-रात बेचैन रहता है।

सुन्दरि! अवश्य ही मैं यह जानता हूँ कि तुम परमोन्नति को प्राप्त हुए दक्ष प्रजापति को अपनी कन्याओं में सबसे अधिक प्रिय हो। तथापि मेरी आश्रिता होने के कारण तुम्हें अपने पिता से मान नहीं मिलेगा; क्योंकि वे मुझसे बहुत जलते हैं। जीव की चित्तवृत्ति के साक्षी अहंकारशून्य महापुरुषों की समृद्धि को देखकर जिसके हृदय में सन्ताप और इन्द्रियों में व्यथा होती है, वह पुरुष उनके पद को तो सुगमता से प्राप्त कर नहीं सकता; बस, दैत्यगण जैसे श्रीहरि से द्वेष मानते हैं, वैसे ही उनसे कुढ़ता रहता है।

सुमध्यमे! तुम कह सकती हो कि आपने प्रजापतियों की सभा में उनका आदर क्यों नहीं किया। सो ये सम्मुख जाना, नम्रता दिखाना, प्रणाम करना आदि क्रियाएँ जो लोक व्यवहार में परस्पर की जाती हैं, तत्त्वज्ञानियों के द्वारा बहुत अच्छे ढंग से की जाती हैं। वे अन्तर्यामीरूप से सबके अन्तःकरणों में स्थित परमपुरुष वासुदेव को ही प्रणामादि करते हैं; देहाभिमानी पुरुष को नहीं करते। विशुद्ध अन्तःकरण का नाम ही ‘वसुदेव’ है, क्योंकि उसी में भगवान् वासुदेव का अपरोक्ष अनुभव होता है। उस शुद्धचित्त में स्थित इन्द्रियातीत भगवान् वासुदेव को ही मैं नमस्कार किया करता हूँ। इसीलिये प्रिये! जिसने प्रजापतियों के यज्ञ में, मेरे द्वारा कोई अपराध न होने पर भी, मेरा कटुवाक्यों से तिरस्कार किया था, वह दक्ष यद्यपि मेरा शत्रु होने के कारण तुम्हें उसे अथवा उसके अनुयायियों को देखने का विचार भी नहीं करना चाहिये। यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी, तो तुम्हारे लिये अच्छा न होगा; क्योंकि जब किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति का अपने आत्मीयजनों के द्वारा अपमान होता है, तब वह तत्काल उनकी मृत्यु का कारण हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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