श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 31 श्लोक 16-25

चतुर्थ स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद


वस्तुतः यह विश्वात्मा श्रीभगवान् का वह शास्त्र प्रसिद्ध सर्वोपाधिरहित स्वरूप ही है। जैसे सूर्य की प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व-नगर के समान स्फुरित होने वाला यह जगत् भगवान् से भिन्न नहीं है; तथा जैसे जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं किन्तु सुषुप्ति में उनकी शक्तियाँ लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह जगत् सर्गकाल में भगवान् से प्रकट हो जाता है और कल्पान्त होने पर उन्हीं में लीन हो जाता है। स्वरूपतः तो भगवान् में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी त्रिविध अहंकार के कार्यों की तथा उनके निमित्त से होने वाले भेदभ्रम की सत्ता है ही नहीं।

नृपतिगण! जैसे बादल, अन्धकार और प्रकाश- ये क्रमशः आकाश से प्रकट होते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्त्व, रज, और तमोमयी शक्तियाँ कभी परब्रह्म से उत्पन्न होती हैं और कभी उसी में लीन हो जाती हैं। इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है; किन्तु इससे आकाश के समान असंग परमात्मा में कोई विकार नहीं होता। अतः तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालों के भी अधीश्वर श्रीहरि अपने से अभिन्न मानते हुए भजो; क्योंकि वे ही समस्त देहधारियों के एकमात्र आत्मा हैं। वे ही जगत् के निमित्तकारण काल, उपादान कारण प्रधान और नियन्ता पुरुषोत्तम हैं तथा अपनी काल शक्ति से वे ही इस गुणों के प्रवाहरूप प्रपंच का संहार कर देते हैं। वे भक्तवत्सल भगवान् समस्त जीवों पर दया करने से, जो कुछ मिल जाये उसी में सन्तुष्ट रहने से तथा समस्त इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त करके शान्त करने से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। पुत्रैषणा आदि सब प्रकार की वासनाओं के निकल जाने से जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, उन संतों के हृदय में उनके निरन्तर बढ़ते हुए चिन्तन से खिंचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते हैं और अपनी भक्ताधीनता को चरितार्थ करते हुए हृदयाकाश की भाँति वहाँ से हटते नहीं।

भगवान् तो अपने को (भगवान् को) ही सर्वस्व मानने वाले निर्धन पुरुषों पर ही प्रेम करते हैं; क्योंकि वे परम रसज्ञ हैं-उन अकिंचनों की अनन्याश्रया अहैतु की भक्ति में कितना माधुर्य होता है, इसे प्रभु अच्छी तरह जानते हैं। जो लोग अपने शास्त्रज्ञान, धन, कुल और कर्मों के मद से उन्मत्त होकर, ऐसे निष्किंचन साधुजनों का तिरस्कार करते हैं, उन दुर्बुद्धियों की पूजा तो प्रभु स्वीकार ही नहीं करते। भगवान् स्वरूपानन्द से ही परिपूर्ण हैं, उन्हें निरन्तर अपनी सेवा में रहने वाली लक्ष्मी जी तथा उनकी इच्छा करने वाले नरपति और देवताओं की भी कोई परवा नहीं है। इतने पर भी वे अपने भक्तों के तो अधीन ही रहते हैं। अहो! ऐसे करुणा-सागर श्रीहरि को कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देर के लिये भी कैसे छोड़ सकता है?

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! भगवान् नारद ने प्रचेताओं को इस उपदेश के साथ-साथ और भी बहुत-सी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनायीं। इसके पश्चात् वे ब्रह्मलोक को चले गये। प्रचेतागण भी उनके मुख से सम्पूर्ण जगत् के पापरूपी मल को दूर करने वाले भगवच्चरित्र सुनकर भगवान् के चरणकमलों का ही चिन्तन करने लगे और अन्त में भगवद्धाम को प्राप्त हुए। इस प्रकार आपने जो मुझसे श्रीनारद जी और प्रचेताओं के भगवत्कथा सम्बन्धी संवाद के विषय में पूछा था, वह मैंने आपको सुना दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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