एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 55-60 का हिन्दी अनुवाद
प्रिय उद्धव! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होने वाली) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो। आत्म-विषयक अज्ञान से प्रतीत होने वाला सांसारिक भेद-भाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो। असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणी द्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बांधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दें, मूत दें अथवा तरह-तरह से विचलित करें, निष्ठा से डिगाने की चेष्टा करें; उसके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि जो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं हैं। अतः जो अपने कल्याण का इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयों से अपनी विवेक-बुद्धि द्वारा ही-किसी बाह्य साधन से नहीं-अपने को बचा लेना चाहिये। वस्तुतः आत्म-दृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है। उद्धव जी ने कहा- 'भगवन्! आप समस्त वक्ताओं के शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनों से किये गये तिरस्कार को अपने मन में अत्यन्त असह्य समझता हूँ। अतः जैसे मैं इसको समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवन में धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये। विश्वात्मन्! जो आपके भागवत धर्म के आचरण में प्रेमपूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरण कमलों का ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषों के अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी दुष्टों के द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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