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− | + | श्री शुकदेव जी कहते हैं - [[परीक्षित]]! [[श्रीकृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] [[बलराम|बलराम जी]] के साथ [[वृन्दावन]] में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब [[गोप]] [[इन्द्र|इन्द्र-यज्ञ]] करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने [[नन्दबाबा]] आदि बड़े-बूढ़े [[गोप|गोपों]] ने पूछा - ‘पिताजी! आप लोगों के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है? इसका फल क्या है? किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों के द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं? | |
− | + | पिताजी! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये। आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी! जो संत पुरुष सबकी अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीन - उनके पास छिपाने की तो कोई होती ही नहीं। परन्तु यदि ऐसी स्थिति न हो तो रहस्य की बात शत्रु की भाँति उदासीन से भी नहीं करनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती। यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बुझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अतः इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारित-शास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही है - मैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।' | |
− | + | [[नन्दबाबा]] ने कहा - बेटा! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाल जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्ही मेघपति [[इन्द्र|भगवान इन्द्र]] की यज्ञों द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियों से यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जल से ही उत्पन्न होती हैं। उनका यज्ञ करने के बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्न से हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग की सिद्धि के लिये अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। मनुष्यों के खेती आदि प्रयत्नों के फल देने वाले इन्द्र ही हैं। यह धर्म हमारी कुल परम्परा से चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्म को छोड़ देता है, उसका कभी मंगल नहीं होता। | |
− | + | श्री शुकदेव जी कहते हैं - [[परीक्षित]]! [[ब्रह्मा]], शंकर आदि के भी शासन करने वाले केशव भगवान ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों की बात सुनकर इन्द्र को क्रोध दिलाने के लिये अपने पिता नन्दबाबा से कहा। | |
− | यदि कर्मों को ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवों के कर्म का फल | + | श्री भगवान ने कहा - पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है। |
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+ | यदि कर्मों को ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवों के कर्म का फल देने वाला ईश्वर माना भी जाय तो वह कर्म करने वालों को ही उनके कर्म के अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करने वालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती। | ||
{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 44-52 |अगला= श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 15-30}} | {{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 44-52 |अगला= श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 15-30}} |
11:42, 22 अगस्त 2015 का अवतरण
दशम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्यायः (24) (पूर्वार्ध)
श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने पूछा - ‘पिताजी! आप लोगों के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है? इसका फल क्या है? किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों के द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं?
पिताजी! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये। आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी! जो संत पुरुष सबकी अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीन - उनके पास छिपाने की तो कोई होती ही नहीं। परन्तु यदि ऐसी स्थिति न हो तो रहस्य की बात शत्रु की भाँति उदासीन से भी नहीं करनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती। यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बुझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अतः इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारित-शास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही है - मैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।'
नन्दबाबा ने कहा - बेटा! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाल जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्ही मेघपति भगवान इन्द्र की यज्ञों द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियों से यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जल से ही उत्पन्न होती हैं। उनका यज्ञ करने के बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्न से हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग की सिद्धि के लिये अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। मनुष्यों के खेती आदि प्रयत्नों के फल देने वाले इन्द्र ही हैं। यह धर्म हमारी कुल परम्परा से चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्म को छोड़ देता है, उसका कभी मंगल नहीं होता।
श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! ब्रह्मा, शंकर आदि के भी शासन करने वाले केशव भगवान ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों की बात सुनकर इन्द्र को क्रोध दिलाने के लिये अपने पिता नन्दबाबा से कहा।
श्री भगवान ने कहा - पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है।
यदि कर्मों को ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवों के कर्म का फल देने वाला ईश्वर माना भी जाय तो वह कर्म करने वालों को ही उनके कर्म के अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करने वालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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