श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 82 श्लोक 30-38

दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय श्लोक 30-38 का हिन्दी अनुवाद


वेदों ने बड़े आदर के साथ भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति का गान किया है। उनके चरणधोवन का जल गंगाजल, उनकी वाणी- शास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत् को अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हम लोगों के जीवन की ही बात है, समय के फेर से पृथ्वी का सारा सौभाग्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके चरणकमलों के स्पर्श से पृथ्वी में फिर समस्त शक्तियों का संचार हो गया और अब वह फिर हमारी समस्त अभिलाषाओं- मनोरथों को पूर्ण करने लगी।

उग्रसेन जी! आप लोगों का श्रीकृष्ण के साथ वैवाहिक एवं गोत्रसम्बन्ध है। यही नहीं, आप हर समय उनका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते रहते हैं। उनके साथ चलते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, बैठते हैं और खाते-पीते हैं। यों तो आप लोग गृहस्थी की झंझटों में फँसे रहते हैं- जो नरक का मार्ग है, परन्तु आप लोगों के घर वे सर्वव्यापक विष्णु भगवान मूर्तिमान् रूप से निवास करते हैं, जिनके दर्शनमात्र से स्वर्ग और मोक्ष तक की अभिलाषा मिट जाती है’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब नन्दबाबा को यह बात मालूम हुई की श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्र में आये हुए हैं, तब वे गोपों के साथ अपनी सारी सामग्री गाड़ियों पर लादकर अपने प्रिय श्रीकृष्ण-बलराम आदि को देखने के लिये वहाँ आये। नन्द आदि गोपों को देखकर सब-के-सब यदुवंशी आनन्द से भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीर में प्राणों का संचार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरे से मिलने के लिये बहुत दिनों से आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरे को बहुत देर तक अत्यन्त गाढ़भाव से आलिंगन करते रहे। वसुदेव जी ने अत्यन्त प्रेम और आनन्द से विह्वल होकर नन्द जी को हृदय से लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयीं- कंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्र को गोकुल में ले जाकर नन्द जी के घर रख दिया था। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने माता यशोदा और पिता नन्द जी के हृदय उनके चरणों में प्रणाम किया।

परीक्षित! उस समय प्रेम के उद्रेक से दोनों भाइयों का गला रूँध गया, वे कुछ भी बोल न सके। महाभाग्यवती यशोदा जी और नन्दबाबा ने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में बैठा लिया और भुजाओं से उनका गाढ़ आलिंगन किया। उसके हृदय में चिरकाल तक न मिलने का जो दुःख था, वह सब मिट गया। रोहिणी और देवकी जी ने व्रजेश्वरी यशोदा को अपनी अँकवार में भर लिया। यशोदा जी ने उन लोगों के साथ मित्रता का जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनों का गला भर आया। वे यशोदा जी से कहने लगीं- ‘यशोदारानी! आपने और व्रजेश्वर नन्द जी ने हम लोगों के साथ जो मित्रता का व्यवहार किया है, वह कभी मिटने वाला नहीं है, उसका बदला इन्द्र का ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानी जी! भला ऐसा कौन सा कृतघ्न है, जो आपके उस उपकार को भूल सके?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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