श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 42-63

चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 42-63 का हिन्दी अनुवाद


राजा पृथु ने कहा- भगवन्! दीनदयाल श्रीहरि ने मुझ पर पहले कृपा की थी, उसी को पूर्ण करने के लिये आप लोग पधारे हैं। आप लोग बड़े ही दयालु हैं। जिस कार्य के लिये आप लोग पधारे थे, उसे आप लोगों ने अच्छी तरह सम्पन्न कर दिया। अब, इसके बदले में मैं आप लोगों को क्या दूँ ? मेरे पास तो शरीर और इसके साथ जो कुछ है, वह सब महापुरुषों का ही प्रसाद है।

ब्रह्मन्! प्राण, स्त्री, पुत्र सब प्रकार की सामग्रियों से भरा हुआ भवन, राज्य, सेना, पृथ्वी और कोश- यह सब कुछ आप ही लोगों का है, अतः आपके ही श्रीचरणों में अर्पित है। वास्तव में तो सेनापतित्व, राज्य, दण्डविधान और सम्पूर्ण लोकों के शासन का अधिकार वेद-शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों को ही है। ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपनी ही वस्तु दान देता है। दूसरे- क्षत्रिय आदि तो उसी की कृपा से अन्न खाने को पाते हैं। आप लोग वेद के पारगामी हैं, आपने अध्यात्मतत्त्व का विचार करके हमें निश्चित रूप से समझा दिया है कि भगवान् के प्रति इस प्रकार की अभेद-शक्ति ही उनकी उपलब्धि का प्रधान साधन है। आप लोग परम कृपालु हैं। अतः अपने इस दीनोद्धाररूप कर्म से ही सर्वदा सन्तुष्ट रहें। आपके इस उपकार का बदला कोई क्या दे सकता है? उसके लिये प्रयत्न करना भी अपनी हँसी कराना ही है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! फिर आदिराज पृथु ने आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि की पूजा की और वे उनके शील ही प्रशंसा करते हुए सब लोगों के सामने ही आकाशमार्ग से चले गये। महात्माओं में अग्रगण्य महाराज पृथु उनके आत्मोपदेश पाकर चित्त की एकाग्रता से आत्मा में ही स्थित रहने के कारण अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव करने लगे। वे ब्रह्मार्पण-बुद्धि से समय, स्थान, शक्ति, न्याय और धन के अनुसार सभी कर्म करते थे। इस प्रकार एकाग्रचित्त से समस्त कर्मों का फल परमात्मा को अर्पण करके आत्मा को कर्मों का साक्षी एवं प्रकृति से अतीत देखने के कारण वे सर्वथा निर्लिप्त रहे। जिस प्रकार सूर्यदेव सर्वत्र प्रकाश करने पर भी वस्तुओं के गुण-दोष से निर्लेप रहते हैं, उसी प्रकार सार्वभौम साम्राज्य लक्ष्मी से सम्पन्न और गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी अहंकारशून्य होने के कारण वे इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं हुए।

इस प्रकार आत्मनिष्ठा में स्थित होकर सभी कर्तव्यकर्मों का यथोचित रीति से अनुष्ठान करते हुए उन्होंने अपनी भार्या अर्चि के गर्भ से अपने अनुरूप पाँच पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक थे। महाराज पृथु भगवान् के अंश थे। वे समय-समय पर, जब-जब आवश्यक होता था, जगत् के प्राणियों की रक्षा के लिये अकेले ही समस्त लोकपालों के गुण धारण कर लिया करते थे। अपने उदार मन, प्रिय और हितकर वचन, मनोहर मूर्ति और सौम्य गुणों के द्वारा प्रजा का रंजन करते रहने से दूसरे चन्द्रमा के समान उनका ‘राजा’ यह नाम सार्थक हुआ। सूर्य जिस प्रकार गरमी में पृथ्वी का जल खींचकर वर्षाकाल में उसे पुनः पृथ्वी पर बरसा देता है तथा अपनी किरणों से सबको ताप पहुँचाता है, उसी प्रकार वे कररूप से प्रजा का धन लेकर उसे दुष्कालादि के समय मुक्तहस्त से प्रजा के हित में लगा देते थे तथा सब पर अपना प्रभाव जमाये रखते थे। वे तेज में अग्नि के समान दुर्धर्ष, इन्द्र के समान अजेय, पृथ्वी के समान क्षमाशील और स्वर्ग के समान मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाले थे। समय-समय पर प्रजाजनों को तृप्त करने के लिये वे मेघ के समान उनके अभीष्ट अर्थों को खुले हाथ से लुटाते रहते थे। वे समुद्र के समान गम्भीर और पर्वतराज सुमेरु के समान धैर्यवान् भी थे।

महाराज पृथु दुष्टों का दमन करने में यमराज के समान, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं के संग्रह में हिमालय के समान, कोश की समृद्धि करने में कुबेर के समान और धन को छिपाने में वरुण के समान थे। शारीरिक बल, इन्द्रियों की पटुता तथा पराक्रम में सर्वत्र गतिशील वायु के समान और तेज की असह्ता में भगवान् शंकर के समान थे। सौन्दर्य में कामदेव के समान, उत्साह में सिंह के समान, वात्सल्य में मनु के समान और मनुष्यों के आधिपत्य में सर्वसमर्थ ब्रह्मा जी के समान थे। ब्रह्मविचार में बृहस्पति, इन्द्रियजय में साक्षात् श्रीहरि तथा गौ, ब्राह्मण, गुरुजन एवं भगवद्भक्तों की भक्ति, लज्जा, विनय, शील एवं परोपकार आदि गुणों में अपने ही समान (अनुपम) थे। लोग त्रिलोकी में सर्वत्र उच्च स्वर से उनकी कीर्ति का गान करते थे, इससे वे स्त्रियों तक के कानों में वैसे ही प्रवेश पाये हुए थे, जैसे सत्पुरुषों के हृदय में श्रीराम

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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