श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 29-41

चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद


बाह्य जगत् में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तों के रहने पर ही अपने बिम्ब और प्रतिबिम्ब का भेद दिखायी देता है, अन्य समय नहीं। जो लोग विषयचिन्तन में लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयों में फँस जाती हैं तथा मन को भी उन्हीं की ओर खींच ले जाती हैं। फिर तो जैसे जलाशय के तीर पर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ों से उसका जल खींचते रहते हैं, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धि की विचारशक्ति को क्रमशः हर लेता है। विचारशक्ति के नष्ट हो जाने पर पूर्वापर की स्मृति जाती रहती है और स्मृति का नाश हो जाने पर ज्ञान नहीं रहता। इस ज्ञान के नाश को ही पण्डितजन ‘अपने-आप अपना नाश करना’ कहते हैं। जिसके उद्देश्य से अन्य सब पदार्थों में प्रियता का बोध होता है- उस आत्मा का अपने द्वारा ही नाश होने से जो स्वार्थ हानि होती है, उससे बढ़कर लोक में जीव की और कोई हानि नहीं है।

धन और इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करना मनुष्य के सभी पुरुषार्थों का नाश करने वाला हैं; क्योंकि इनकी चिन्ता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पता है। इसलिये जिसे अज्ञानान्धकार से पार होने की इच्छा हो, उस पुरुष को विषयों में आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रप्ति में बड़ी बाधक है। इन चार पुरुषार्थों में भी सबसे श्रेष्ठ मोक्ष ही माना जाता है; क्योंकि अन्य तीन पुरुषार्थों में सर्वदा काल का भय लगा रहता है। प्रकृति में गुणक्षोभ होने के बाद जितने भी उत्तम और अधम भाव- पदार्थ प्रकट हुए हैं, उनमें कुशल से रह सके ऐसा कोई भी नहीं है। काल भगवान् उन सभी के कुशालों को कुचलते रहते हैं।

अतः राजन्! जो भगवान् देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि और अहंकार से आवृत्त सभी स्थावर-जंगम प्राणियों के हृदयों में जीव के नियामक अन्तर्यामी आत्मारूप से सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं- उन्हें तुम ‘वह मैं ही हूँ’ ऐसा जानो। जिस प्रकार माला का ज्ञान हो जाने पर उसमें सर्पबुद्धि नहीं रहती, उसी प्रकार विवेक होने पर जिसका कहीं पता नहीं लगता, ऐसा यह मायामय प्रपंच जिसमें कार्य-कारणरूप से प्रतीत हो रहा है और जो स्वयं कर्मफल कलुषित प्रकृति से परे है, उस नित्यमुक्त, निर्मल और ज्ञानस्वरूप परमात्मा को मैं प्राप्त हो रहा हूँ। संत-महात्मा जिनके चरणकमलों के अंगुलिदल हृदयग्रन्थि को, जो कर्मों से गठित है, इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियों का प्रत्याहार करके अपने अन्तःकरण को निर्विषय करने वाले संन्यासी भी वैसा नहीं कर पाते। तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेव का भजन करो। जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरों से भरे हुए इस संसार सागर को योगादि दुष्कर साधनों से पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरि का आश्रय नहीं है। अतः तुम तो भगवान् के आराधनीय चरणकमलों को नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्र को पार कर लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ब्रह्मा जी के पुत्र आत्मज्ञानी सनत्कुमार जी से इस प्रकार आत्मतत्त्व का उपदेश पाकर महाराज पृथु ने उनकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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