श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 17-28

चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद


श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- राजा पृथु के ये युक्तियुक्त, गम्भीर, परिमित और मधुर वचन सुनकर श्रीसनत्कुमार जी बड़े प्रसन्न हुए और कुछ मुसकराते हुए कहने लगे।

श्रीसनत्कुमार जी ने कहा- महाराज! आपने सब कुछ जानते हुए भी समस्त प्राणियों के कल्याण की दृष्टि से बड़ी अच्छी बात पूछी है। सच है, साधुपुरुषों की बुद्धि ऐसी ही हुआ करती है। सत्पुरुषों का समागम श्रोता और वक्ता दोनों का ही अभिमत होता है, क्योंकि उसके प्रश्नोत्तर सभी का कल्याण करते हैं।

राजन्! श्रीमधुसूदन भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद में अवश्य ही आपकी अविचल प्रीति है। हर किसी को इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है और प्राप्त हो जाने पर यह हृदय के भीतर रहने वाले उस वासनारूप मल को सर्वथा नष्ट कर देती है, जो और किसी उपाय से जल्दी नहीं छुटता। शास्त्र जीवों के कल्याण के लिये भलीभाँति विचार करने वाले हैं; उनमें आत्मा से भिन्न देहादि के प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्म में सुदृढ़ अनुराग होना- यही कल्याण का साधन निश्चित किया गया है। शास्त्रों का यह भी कहना है कि गुरु और शास्त्रों के वचनों में विश्वास रखने से, भागवत धर्मों का आचरण करने से, तत्त्वजिज्ञासा से, ज्ञानयोग की निष्ठा से, योगेश्वर श्रीहरि की उपासना से, नित्यप्रति पुण्यकीर्ति श्रीभगवान् की पावन कथाओं को सुनने से, जो लोग धन और इन्द्रियों के भोगों में ही रत हैं उनकी गोष्ठी में प्रेम न रखने से, उन्हें प्रिय लगने वाले पदार्थों का आसक्तिपूर्वक संग्रह न करने से, भगवद्पुराणमृत का पान करने के सिवा अन्य समय आत्मा में ही सन्तुष्ट रहते हुए एकान्तसेवन में प्रेम रखने से, किसी भी जीव को कष्ट न देने से, निवृत्तिनिष्ठा से, आत्महित का अनुसन्धान करते रहने से, श्रीहरि के पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृत का आस्वादन करने से, निष्कामभाव से यम-नियमों का पालन करने से, कभी किसी की निन्दा न करने से, योगक्षेम के लिये प्रयत्न न करने से, शीतोष्णदि द्वन्दों को सहन करने से, भक्तजनों के कानों को सुख देने वाले श्रीहरि के गुणों का बार-बार वर्णन करने से और बढ़ते हुए भक्तिभाव से मनुष्य का कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड़ प्रपंच से वैराग्य हो जाता है और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्म में अनायास ही उसकी प्रीति हो जाती है।

परब्रह्म में सुदृढ़ प्रीति हो जाने पर पुरुष सद्गुरु की शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेग के कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकार के क्लेशों से युक्त अहंकारात्मक अपने लिंग शरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ी से प्रकट होकर फिर उसी को जला डालती है। इस प्रकार लिंग देह का नाश हो जाने पर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणों से मुक्त हो जाता है। फिर तो जैसे स्वप्नावस्था में तरह-तरह के पदार्थ देखने पर भी उससे जग पड़ने पर उनमें से कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीर के बाहर दिखायी देने वाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होने वाले सुख-दुःखादि को भी नहीं देखता। इस स्थिति के प्राप्त होने से पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच में रहकर उनका भेद कर रहे थे। जब तक अन्तःकरणरूप उपाधि रहती है, तभी तक पुरुष को जीवात्मा, इन्द्रियों के विषय और इन दोनों का सम्बन्ध कराने वाले अहंकार का अनुभव होता है; इसके बाद नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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