श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 5 श्लोक 46-59

श्रीमद्भागवत माहात्म्य पञ्चम अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) पञ्चम अध्यायः श्लोक 46-59 का हिन्दी अनुवाद


उसी के नीचे के छिद्र में घुसकर वह कथा सुनने के लिये बैठ गया। वायु रूप होने के कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था, इसलिये बाँस में घुस गया। गोकर्णजी ने एक वैष्णव ब्राह्मण को मुख्य श्रोता बनाया और प्रथमस्कन्ध से ही स्पष्ट स्वर में कथा सुनानी आरम्भ कर दी। सायंकाल में जब कथा को विश्राम दिया गया, तब एक बड़ी विचित्र बात हुई। वहाँ सभासदों के देखते-देखते उस बाँस की एक गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गई। इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकाल में दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी। इस प्रकार सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर धुन्धकारी बारहों स्कन्धों के सुनने से पवित्र होकर प्रेतयोनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ। उसका मेघ के समान श्याम शरीर पीताम्बर और तुलसी की मालाओं से सुशोभित था तथा सिर पर मनोहर मुकुट और कानों में कमनीय कुण्डल झिलमिला रहे थे।

उसने तुरन्त अपने भाई गोकर्ण को प्रणाम करके कहा—‘भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया। यह प्रेतपीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद्भागवत की कथा धन्य है तथा श्रीकृष्णचन्द्र के धाम की प्राप्ति कराने वाला इसका सप्ताह-पारायण भी धन्य है! जब सप्ताहश्रवण का योग लगता है, तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवत की कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी। जिस प्रकार आग गीली-सूखी, छोटी-बड़ी—सब तरह की लकड़ियों को जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताहश्रवण मन, वचन और कर्म द्वारा किये हुए नये-पुराने, छोटे-बड़े—सभी प्रकार के पापों को भस्म कर देता है। विद्वानों ने देवताओं की सभा में कहा है कि जो लोग इस भारतवर्ष में श्रीमद्भागवत की कथा नहीं सुनते, उनका जन्म वृथा ही है। भला, मोह पूर्वक लालन-पालन करके यदि इस अनित्य शरीर को हृष्ट-पुष्ट और बलवान् भी बना लिया तो भी श्रीमद्भागवत की कथा सुने बिना इससे क्या लाभ हुआ? अस्थियाँ ही इस शरीर के आधारस्तम्भ हैं, नस-नाडी रूप रस्सियों से यह बँधा हुआ है, ऊपर से इस पर मांस और रक्त थोपकर इसे चर्म से मंढ़ दिया गया है। इसके प्रत्येक अंग में दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह मल-मूत्र का भाण्ड ही। वृद्धावस्था और शोक के कारण यह परिणाम में दुःखमय ही है, रोगों का तो घर ही ठहरा। यह निरन्तर किसी-न-किसी कामना से पीड़ित रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती। इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है; इसके रोम-रोम में दोष भरे हुए हैं और नष्ट होने में इसे एक क्षण भी नहीं लगता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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