श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 5 श्लोक 31-45

श्रीमद्भागवत माहात्म्य पञ्चम अध्याय

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श्रीमद्भागवत माहात्म्य (प्रथम खण्ड) पञ्चम अध्यायः श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद

गोकर्ण ने कहा—भाई! मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है—मैंने तुम्हारे लिये विधिपूर्वक गयाजी में पिण्डदान किया, फिर भी तुम प्रेतयोनि से मुक्त कैसे नहीं हुए? यदि गया-श्राद्ध से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई, तब इसका और कोई उपाय ही नहीं है। अच्छा, तुम सब बात खोलकर कहो—मुझे अब क्या करना चाहिये?

प्रेत ने कहा—मेरी मुक्ति सैकड़ों गया-श्राद्ध करने से भी नहीं हो सकती। अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो।

प्रेत की यह बात सुनकर गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे—‘यदि सैकड़ों गया-श्राद्धों से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है। अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो; मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिये कोई दूसरा उपाय करूँगा’। गोकर्ण की आज्ञा पाकर धुन्धकारी वहाँ से अपने स्थान पर चला आया। इधर गोकर्ण ने रात भर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा। प्रातःकाल उनको आया देख लोग प्रेम से उनसे मिलने आये। तब गोकर्ण ने रात में जो कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह सब उन्हें सुना दिया।

उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और वेदज्ञ थे, उन्होंने भी अनेकों शास्त्रों को उलट-पलटकर देखा; तो भी उसकी मुक्ति का कोई उपाय न मिला। तब सबने यही निश्चय किया कि इस विषय में सूर्यनारायण जो आज्ञा करें, वही करना चाहिये। अतः गोकर्ण ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया। उन्होंने स्तुति की—‘भगवन्! आप सारे संसार के साक्षी है, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप मुझे कृपा करके धुन्धकारी की मुक्ति का साधन बताइये।’ गोकर्ण की यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दों में कहा—‘श्रीमद्भागवत से मुक्ति हो सकती है, इसलिये तुम उसका सप्ताह पारायण करो।’ सूर्य का यह धर्ममय वचन वहाँ सभी ने सुना। तब सबने यही कहा कि ‘प्रयत्नपूर्वक यही करो, है भी यह साधन बहुत सरल।’ अतः गोकर्णजी भी तदनुसार निश्चय करके कथा सुनाने के लिये तैयार हो गये। देश और गावों से अनेकों लोग कथा सुनने के लिये आये। बहुत-से लँगड़े-लूले, अंधे, बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापों की निवृत्ति के उद्देश्य से वहाँ आ पहुँचे। इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो गयी कि उसे देखकर देवताओं को भी आश्चर्य होता था। जब गोकर्णजी व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कने लगे, तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर बैठने के लिये स्थान ढूँढने लगा। इतने में ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गाँठ के बाँस पर पड़ी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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