श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 18-33

षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद


बलि का पुत्र बाणासुर भगवान् शंकर की आराधना करके उनके गणों का मुखिया बन गया। आज भी भगवान् शंकर उसके नगर की रक्षा करने के लिये उसके पास ही रहते हैं। दिति के हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे। उन्हें मरुद्गण कहते हैं। वे सब निःसन्तान रहे। देवराज इन्द्र ने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! मरुद्गण ने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोसित भाव को छोड़ सके और देवराज इन्द्र के द्वारा देवता बना लिये गये? ब्रह्मन! मेरे साथ यहाँ की सभी ऋषिमण्डली यह बात जानने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है। अतः आप कृपा करके विस्तार से वह रहस्य बतलाइये।

सूत जी कहते हैं- शौनक जी! राजा परीक्षित का प्रश्न थोड़े शब्दों में बड़ा सारगर्भित था। उन्होंने बड़े आदर से पूछा भी था। इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेव जी महाराज ने बड़े ही प्रसन्न चित्त से उनका अभिनन्दन करके यों कहा।

श्रीशुकदेव जी कहने लगे- परीक्षित! भगवान् विष्णु ने इन्द्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष को मार डाला। अतः दिति शोक की आग से उद्दीप्त क्रोध से जलकर इस प्रकार सोचने लगी- ‘सचमुच इन्द्र बड़ा विषयी, क्रूर और निर्दयी है। राम! राम! उसने अपने भाइयों को ही मरवा डाला। वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापी को मरवाकर आराम से सौऊँगी। लोग राजाओं के, देवताओं के शरीर को ’प्रभु’ कहकर पुकारते हैं; परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्ठा या राख का ढेर जो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियों को सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थ का पता नहीं है; क्योंकि इससे तो नरक में जाना पड़ेगा। मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीर को नित्य मानकर मतवाला हो रहा है। उसे अपने विनाश का पता ही नहीं है। अब मैं वह उपाय करूँगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दे’।

दिति अपने मन में ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय-प्रेम और जितेन्द्रियता आदि के द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यप जी को प्रसन्न रखने लगी। वह अपने पतिदेव के हृदय का एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुस्कान भरी तिरछी चितवन से उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी। कश्यप जी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होने पर भी चतुर दिति की सेवा से मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि ‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।’ स्त्रियों के सम्बन्ध में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

सृष्टि के प्रभात में ब्रह्मा जी ने देखा कि सभी जीव असंग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीर से स्त्रियों की रचना की और स्त्रियों ने पुरुषों की मति अपनी ओर आकर्षित कर ली। हाँ, तो भैया! मैं कह रहा था कि दिति ने भगवान् कश्यप जी की बड़ी सेवा की। इससे वे उस पर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने दिति का अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा।

कश्यप जी ने कहा- अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। पति के प्रसन्न हो जाने पर पत्नी के लिये लोक या परलोक में कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ है। शास्त्रों में यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियों का परमाराध्य इष्टदेव है। प्रिये! लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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