श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 30-41

पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद


एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान् सूर्य सुमेरु की परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वी के जितने भाग को आलोकित करते हैं, उसमें से आधा ही प्रकाश में रहता है और आधे में अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि ‘मैं रात को भी दिन बना दूँगा;’ सूर्य के समान ही वेगवान् एक ज्योतिर्मय रथ पर चढ़कर द्वितीय सूर्य की ही भाँति उनके पीछे-पीछे पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर डालीं। भगवान् की उपासना से इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था। उस समय इनके रथ के पहियों से जो लीकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए; उनसे पृथ्वी में सात द्वीप हो गये। उनके नाम क्रमशः जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर द्वीप हैं। इनमें से पहले-पहले की अपेक्षा आगे-आगे के द्वीप का परिमाण दूना है और ये समुद्र के बाहरी भाग में पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए हैं।

सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, मदिरा, घी, दूध, मट्ठे और मीठे जल से भरे हुए हैं। ये सातों द्वीपों की खाइयों के समान हैं और परिमाण में अपने भीतर वाले द्वीप के बराबर हैं। इनमें से एक-एक क्रमशः अलग-अलग सातों द्वीपों को बाहर से घेरकर स्थित है।[1] बर्हिष्मतीपति महाराज प्रियव्रत ने अपने अनुगत पुत्र आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, धृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र में से क्रमशः एक-एक को उक्त जम्बू आदि द्वीपों में से एक-एक का राजा बनाया। उन्होंने अपनी कन्या ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य जी से किया; उसी से शुक्रकन्या देवयानी का जन्म हुआ।

राजन्! जिन्होंने भगवच्चरणारविन्दों की रज के प्रभाव से शरीर के भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु- इन छः गुणों को अथवा मन के सहित छः इन्द्रियों को जीत लिया है, उन भगवद्भक्तों का ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं; क्योंकि वर्णबहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनि का पुरुष भी भगवान् के नाम का केवल एक बार उच्चारण करने से तत्काल संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रम से युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपने को देवर्षि नारद के चरणों की शरण में जाकर भी पुनः दैववश प्राप्त हुए प्रपंच में फँस जाने से आशान्त-सा देख, मन-ही-मन विरक्त होकर इस प्रकार कहने लगे। ‘ओह! बड़ा बुरा हुआ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियों ने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूप में गिरा दिया। बस! बस! बहुत हो लिया। हाय! मैं तो स्त्री का क्रीड़ामृग ही बन गया! उसने मुझे बन्दर की भाँति नचाया! मुझे धिक्कार है! धिक्कार है!’ इस प्रकार उन्होंने अपने को बहुत कुछ बुरा-भला कहा।

परमाराध्य श्रीहरि की कृपा से उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत् हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रों को बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरह के भोग भोगे थे, उस अपनी राजरानी को साम्राज्य लक्ष्मी के सहित मृतदेह के समान छोड़ दिया तथा हृदय में वैराग्य धारणकर भगवान् की लीलाओं का चिन्तन करते हुए उसके प्रभाव से श्रीनारद जी के बतलाये हुए मार्ग का पुनः अनुसरण करने लगे। महाराज प्रियव्रत के विषय में निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध है-

‘राजा प्रियव्रत ने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वर के सिवा और कौन कर सकता है? उन्होंने रात्रि के अन्धकार को मिटाने का प्रयत्न करते हुए अपने रथ के पहियों से बनी हुई लीकों से ही सात समुद्र बना दिये। प्राणियों के सुभीते के लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपों के द्वारा पृथ्वी के विभाग किये और प्रत्येक द्वीप में अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदि से उसकी सीमा निश्चित कर दी। वे भगवद्भक्त नारददादि के प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताल लोक के, देवलोक के, मर्त्यलोक के तथा कर्म और योग शक्ति से प्राप्त हुए ऐश्वर्य को भी नरकतुल्य समझा था’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इनका क्रम इस प्रकार समझना चाहिये- पहले जम्बूद्वीप है, उसके चारों ओर क्षार समुद्र है। वह प्लक्षद्वीप से घिरा हुआ है, उसके चारों ओर ईख के रस का समुद्र है। उसे शाल्मलि द्वीप घेरे हुए है, उसके चारों ओर मदिरा का समुद्र है। फिर कुशद्वीप है, वह घी के समुद्र से घिरा हुआ है। उसके बाहर क्रौंचद्वीप है, उसके चारों ओर दूध का समुद्र है। फिर शाकद्वीप है, उसे मट्ठे का समुद्र घेरे हुए है। उसके चारों ओर पुष्कर द्वीप है, वह मीठे जल के समुद्र से घिरा हुआ है।

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