श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 62 श्लोक 13-26

दशम स्कन्ध: द्विषष्टितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विषष्टितम अध्याय श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद


स्वप्न में ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी- ‘प्राणप्यारे! तुम कहाँ हो?’ और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलता के साथ उठ बैठी और यह देखकर कि मैं सखियों के बीच में हूँ, बहुत ही लज्जित हुई।

परीक्षित! बाणासुर के मन्त्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखाउषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियाँ थीं। चित्रलेखा ने उषा से कौतूहलवश पूछा- ‘सुन्दरी! राजकुमारी! मैं देखती हूँ कि अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है। फिर तुम किसे ढूँढ रही हो और तुम्हारे मनोरथ का क्या स्वरूप है?’

उषा ने कहा- सखी! मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदल के समान हैं। शरीर पर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लम्बी-लम्बी हैं और वह स्त्रियों का चित्त चुराने वाला हैं। उसने पहले तो अपने अधरों का मधुर मधु मुझे पिलाया, परन्तु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दुःख के सागर में डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी! मैं अपने उसी प्राणवल्लभ को ढूँढ रही हूँ।'

चित्रलेखा ने कहा- ‘सखी! यदि तुम्हारा चित्तचोर त्रिलोकी में कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान सकोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा अवश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ, तुम अपने चित्त चोर प्राणवल्लभ को पहचान कर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी’। यों कहकर चित्रलेखा ने बात-की-बात में बहुत-से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिये। मनुष्यों में उसने वृष्णिवंशी वसुदेव जी के पिता शूर, स्वयं वसुदेव जी, बलराम जी और भगवान श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाये। प्रद्युम्न का चित्र देखते ही उषा लज्जित हो गयी।

परीक्षित! जब उसने अनिरुद्ध का चित्र देखा, तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसने कहा- ‘मेरा यह प्राणवल्लभ यही है, यही है’।

परीक्षित! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्ग से रात्रि में ही भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरी में पहुँची। वहाँ अनिरुद्ध जी बहुत ही सुन्दर पलँग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी उषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया। अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभ को पाकर आनन्द की अधिकता से उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्ध जी के साथ अपने महल में विहार करने लगी।

परीक्षित! उसका अन्तःपुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष झाँक तक नहीं सकता था। उषा का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि सामग्रियों से, सुमधुर पेय (पीने योग्य पदार्थ- दूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर खाने-योग्य) और भक्ष्य (निगल जाने योग्य) पदार्थों से तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शुश्रूषा से अनिरुद्ध जी का बड़ा सत्कार करती। उषा ने अपने प्रेम से उनके मन को अपने वश में कर लिया। अनिरुद्ध जी उस कन्या के अन्तःपुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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