श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 20-34

तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद


श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी उन दोनों को इस प्रकार आश्वासन देकर नारद और सनकादि को साथ ले, हंस पर चढ़कर ब्रह्मलोक को चले गये। ब्रह्मा जी के चले जाने पर कर्दम जी ने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियों के साथ अपनी कन्याओं का विधिपूर्वक विवाह कर दिया। उन्होंने अपनी कला नाम की कन्या मरीचि को, अनसूया अत्रि को, श्रद्धा अंगिरा को और हविर्भू पुलस्त्य को समर्पित की।

पुलह को उनके अनुरूप गति नाम की कन्या दी, क्रतु के साथ परम साध्वी क्रिया का विवाह किया, भृगु जी को ख्याति और वसिष्ठ जी को अरुन्धती समर्पित की। अथर्वा ऋषि को शान्ति नाम की कन्या दी, जिससे यज्ञकर्म का विस्तार किया जाता है। कर्दम जी ने उन विवाहित ऋषियों का उनकी पत्नियों के सहित खूब सत्कार किया।

विदुर जी! इस प्रकार विवाह हो जाने पर वे सब ऋषि कर्दम जी की आज्ञा ले अतिआनन्दपूर्वक अपने-अपने आश्रमों को चले गये। कर्दम जी ने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् देवाधिदेव श्रीहरि ने अवतार लिया है तो वे एकान्त में उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे। ‘अहो! अपने पाप कर्मों के कारण इस दुःखमय संसार में नाना प्रकार से पीड़ित होते हुए पुरुषों पर देवगण तो बहुत काल बीतने पर प्रसन्न होते हैं। किन्तु जिनके स्वरूप को योगिजन अनेकों जन्मों के साधन से सिद्ध हुई सुदृढ़ समाधि के द्वारा एकान्त में देखने का प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तों की रक्षा करने वाले वे ही श्रीहरि हम विषयलोलुपों के द्वारा होने वाली अपनी अवज्ञा का कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं। आप वास्तव में अपने भक्तों का मान बढ़ाने वाले हैं। आपने अपने वचनों को सत्य करने और सांख्ययोग का उपदेश करने के लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है।

भगवन्! आप प्राकृतरूप से रहित हैं, आपके जो चतुर्भुत आदि अलौकिक रूप हैं, वे ही आपके योग्य हैं तथा जो मनुष्य-सदृश रूप आपके भक्तों को प्रिय लगते हैं, वे भी आपको रुचिकर प्रतीत होते हैं। आपका पाद-पीठ तत्त्व ज्ञान की इच्छा से विद्वानों द्वारा सर्वदा वन्दनीय है तथा आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य और श्री- इन छहों ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। भगवन्! आप परब्रह्म हैं; सारी शक्तियाँ आपके अधीन हैं; प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, काल, त्रिविध अहंकार, समस्त लोक एवं लोकपालों के रूप में आप ही प्रकट हैं; तथा आप सर्वज्ञ परमात्मा ही इस सारे प्रपंच को चेतनशक्ति के द्वारा अपने में लीन कर लेते हैं। अतः इन सबसे परे भी आप ही हैं। मैं आप भगवान् कपिल की शरण लेता हूँ। प्रभो! आपकी कृपा से मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया हूँ और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास-मार्ग को ग्रहण कर आपका चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरूँगा। आप समस्त प्रजाओं के स्वामी हैं; अतएव इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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