श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 16-28

तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद


सर्वेश्वर! आप सम्पूर्ण लोकों के अधिपति हैं। नाना प्रकार की कामनाओं में फँसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरी में बँधा है। धर्ममूर्ते! उसी का अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको आज्ञापालनरूप पुजोपहारादि समर्पित करता हूँ।

प्रभो! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करने वाले मुझ-जैसे कर्मजड़ पशुओं को कुछ भी न गिनकर आपके चरणों की छत्रच्छाया का ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक सुधा का ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मों को शान्त करते रहते हैं। प्रभो! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमने की धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं, छः ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत् की आयु का छेदन करता हुआ घूमता रहता है, किंतु आपके भक्तों की आयु का ह्रास नहीं कर सकता।

भगवन्! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जाले को फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्त में उसे निगल जाती है-उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की रचना करने के लिये अपने में अभिन्न अपनी योगमाया को स्वीकार कर उसे अभीव्यक्त हुई अपनी सत्त्वादि शक्तियों द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं। प्रभो! इस समय आपने हमें अपनी तुलसी मालामण्डित, माया से परिच्छिन्न-सी दिखायी देने वाली सगुणमूर्ति से दर्शन दिया है। आप हम भक्तों को जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होने के कारण यद्यपि आपकी पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाम में हमारा शुभ करने के लिये वे हमें प्राप्त हों-नाथ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलाने वाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करने वाले पर भी समस्त अभिलाषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

मैत्रेय जी कहते हैं- भगवान् की भौंहें प्रणय मुस्कान भरी चितवन से चंचल हो रही थीं, वे गरुड़ जी के कंधे पर विराजमान थे। जब कर्दम जी ने इस प्रकार निष्कपट भाव से उनकी स्तुति की, तब वे उनसे अमृतमयी वाणी से कहते लगे।

श्रीभगवान् ने कहा- जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है। प्रजापते! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिसका चित्त निरन्तर एकान्तरूप से मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है। प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्र वाली सारी पृथ्वी का शासन करते हैं। विप्रवर! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के साथ तुमसे मिलने के लिये परसों यहाँ आयेंगे। उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणों से सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाह के योग्य है। प्रजापते! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हीं को वह कन्या अर्पण करेंगे। ब्रह्मन्! गत अनेकों वर्षों से तुम्हारा चित्त जैसी भार्या के लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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