तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद
विदुर जी! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्ध का आरम्भक बतलाया जाता है। यह 'वाराहकल्प' नाम से विख्यात है, इसमें भगवान् ने सूकररूप धारण किया था। यह दो परार्ध का काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरि का एक निमेष माना जाता है। यह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होने पर भी सर्वात्मा श्रीहरि पर किसी प्रकार की प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादि में अभिमान रखने वाले जीवों का ही शासन करने में समर्थ है। प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्र- इन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत- इन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड राशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णु भगवान् का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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