श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 12-27

तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद


चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारा-मण्डल के अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान् सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सरपर्यन्त काल में द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोश की निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं। सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनों के भेद से यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है।

विदुर जी! इन पाँच प्रकार के वर्षों की प्रवृत्ति करने वाले भगवान् सूर्य की तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पंचभूतों में से तेजःस्वरूप हैं और अपनी कालशक्ति से बीजादि पदार्थों की अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति को अनेक प्रकार के कार्योंन्मुख करते हैं। ये पुरुषों की मोहनिवृत्ति के लिये उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते रहते है तथा ये ही सकाम-पुरुषों को यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि मंगलमय फलों का विस्तार करते हैं।

विदुर जी ने कहा- मुनिवर! आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परम आयु का वर्णन तो किया। अब तो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक काल तक रहने वाले हैं, उनकी भी आयु का वर्णन कीजिये। आप भगवान् काल की गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानी लोग अपनी योग सिद्ध दिव्यदृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं।

मैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि- ये चार युग अपनी सन्ध्या और संध्यांशों के सहित देवतावों के बारह सहस्र वर्ष तक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है। इन सत्यादि चारों युगों में क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येक में जितने सहस्र वर्ष होते हैं, उससे दुगुनी सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और संध्यांशों में होते हैं।[1] युग की आदि में सन्ध्या होती है और अन्त में संध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीच का जो काल होता है, उसी को कालवेत्ताओं ने युग कहा है। प्रत्येक युग में एक-एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है।

प्यारे विदुर जी! त्रिलोकी से बाहर महर्लोक से ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्मा जी शयन करते हैं। उस रात्रि का अन्त होने पर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जब तक ब्रह्मा जी का दिन रहता है तब तक चलता रहता है। उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (71 6/12 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजा लोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं। यह ब्रह्मा जी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है। इन मन्वन्तरों में भगवान् सत्त्वगुण का आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियों के द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्व का पालन करते हैं। काल क्रम से जब ब्रह्मा जी का दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर अपने सृष्टि रचनारूप पौरुष को स्थगित करके निश्चेष्ट भाव से स्थित हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्थात् सत्ययुग में 4000 दिव्य वर्ष युग के और 800 सन्ध्या एवं संध्यांश के-इस प्रकार 4800 वर्ष होते हैं। इसी प्रकार त्रेता में 3600 वर्ष, द्वापर में 2400 और कलियुग में 1200 दिव्य वर्ष होते हैं। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है, अतः देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के 360 वर्ष के बराबर हुआ। इस प्रकार मानवीय मान से कलियुग में 432000 वर्ष हुए तथा इससे दुगुने द्वापर में, त्रिगुने त्रेता में और चौगुने सत्ययुग में होते हैं।

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