श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 45-60

चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 45-60 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देखने से ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्त को वर देने के लिये उद्यत हैं। उनकी नासिका, भौंहें और कपोल बड़े ही सुहावने हैं; वे सभी देवताओं में परम सुन्दर हैं। उनकी तरुण अवस्था है; सभी अंग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं। वे प्रणतजनों को आश्रय देने वाले, अपार सुखदायक, शरणागतवत्सल और दया के समुद्र हैं। उनके वक्षःस्थल में श्रीवत्स का चिह्न है; उनका शरीर सजल जलधर के समान श्यामवर्ण है; वे परमपुरुष श्यामसुन्दर गले में वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं। उनके अंग-प्रत्यंग किरीट, कुण्डल, केयूर और कंकणादि आभूषणों से विभूषित हैं; गला कौस्तुभ मणि की भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीर में रेशमी पीताम्बर है। उनके कटिप्रदेश में कांचन की करधनी और चरणों में सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं।

भगवान् का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग नयनों को आनन्दित करने वाला है। जो लोग प्रभु का मानस-पूजन करते हैं, उनके अन्तःकरण में वे हृदयकमल की कर्णिका पर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दों को स्थापित करके विराजते हैं। इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाये, तब उन वरदायक प्रभु का मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान करे कि वह मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टि से निहारते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं। भगवान् की मंगलमयी मूर्ति का इस प्रकार निरन्तर ध्यान करने से मन शीघ्र ही परमानन्द में डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँ से लौटता नहीं।

राजकुमार! इस ध्यान के साथ जिस परम गुह्य मन्त्र का जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ-सुन। इसका सात रात जप करने से मनुष्य आकाश में विचरने वाले सिद्धों का दर्शन कर सकता है। वह मन्त्र हैं- ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’। किस देश और किस काल में कौन वस्तु उपयोगी है-इसका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष को इस मन्त्र के द्वारा तरह-तरह की सामग्रियों से भगवान् की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये। प्रभु का पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली मूल और फलादि, पूजा में विहित दुर्वादि अंकुर, वन में ही प्राप्त होने वाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसी से करना चाहिये। यदि शिला आदि की मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदि में ही भगवान् की पूजा करे। सर्वदा संयमचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फल-मूलादि का परिमित आहार करे। इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया माया के द्वारा अपनी ही इच्छा से अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करने वाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे। प्रभु की पूजा के लिये जिन-जिन उपचारों का विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरि को द्वादशाक्षर मन्त्र के द्वारा ही अर्पण करे। इस प्रकार जब हृदयस्थित हरि का मन, वाणी और शरीर से भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्छलभाव से भलीभाँति भजन करने वाले अपने भक्तों के भाव को बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षरूप कल्याण प्रदान करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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