चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 28-44 का हिन्दी अनुवाद
ध्रुव ने कहा- भगवन्! सुख-दुःख से जिनका चित्त चंचल हो जाता है, उन लोगों के लिये आपने कृपा करके शान्ति का यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया। परन्तु मुझ-जैसे अज्ञानियों की दृष्टि यहाँ तक नहीं पहुँच पाती। इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रिय स्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनय का प्रायः अभाव है; सुरुचि ने अपने कटुवचनरूपी बाणों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता। ब्रह्मन्! मैं उस पद पर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकी में सबसे श्रेष्ठ है तथा जिस पर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसी की प्राप्ति का कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये। आप भगवान् ब्रह्माजी के पुत्र हैं और संसार के कल्याण के लिये ही वीणा बजाते सूर्य की भाँति त्रिलोकी में विचरा करते हैं। श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- ध्रुव की बात सुनकर भगवान् नारद जी बड़े प्रसन्न हुए और उस पर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे। श्रीनारद जी ने कहा- बेटा! तेरी माता सुनीति ने तुझे जो कुछ बताया है, वही तेरे लिये परम कल्याण का मार्ग है। भगवान् वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तू चित्त लगाकर उन्हीं का भजन कर। जिस पुरुष को अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ की अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्ति का उपाय एकमात्र श्रीहरि के चरणों का सेवन ही है। बेटा! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुना जी के तटवर्ती परमपवित्र मधुवन को जा। वहाँ श्रीहरि का नित्य-निवास है। वह श्रीकालिन्दी के निर्मल जल में तीनों समय स्नान करके नित्यकर्म से निवृत्त हो यथाविधि आसन बिछाकर स्थिरभाव से बैठना। फिर रेचक, पूरक और कुम्भक- तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रिय के दोषों को दूरकर धैर्ययुक्त मन से परमगुरु श्रीभगवान् का इस प्रकार ध्यान करना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज