श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 30 श्लोक 32-47

चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद


यदि भ्रमर को अनायास ही कल्पवृक्ष मिल जाये, तो क्या वह किसी दूसरे वृक्ष का सेवन करेगा? तब आपकी चरण शरण में आकर अब हम क्या-क्या माँगे। हम आपसे केवल यही माँगते हैं कि जब तक आपकी माया से मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसार में भ्रमते रहें, तब तक जन्म-जन्म में हमें आपके प्रेमी भक्तों का संग प्राप्त होता रहे। हम तो भगवद्भक्तों के क्षण भर के संग के सामने स्वर्ग और मोक्ष को भी कुछ नहीं समझते; फिर मानवी भोगों की तो बात ही क्या है। भगवद्भक्तों के समाज में सदा-सर्वदा भगवान् की मधुर-मधुर कथाएँ होती रहती हैं, जिनके श्रवणमात्र से किसी प्रकार का वैर विरोध या उद्वेग नहीं रहता। अच्छे-अच्छे कथा-प्रसंगों द्वारा निष्काम भाव से संन्यासियों के एकमात्र आश्रय साक्षात् श्रीनारायणदेव का बार-बार गुणगान होता रहता है। आपके वे भक्तजन तीर्थों को पवित्र करने के उद्देश्य से पृथ्वी पर पैदल ही विचरते रहते हैं। भला, उनका समागम संसार से भयभीत हुए पुरुषों को कैसे रुचिकर न होगा।

भगवन्! आपके प्रिय सखा भगवान् शंकर के क्षण भर के समागम से ही आज हमें आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है। आप जन्म-मरणरूप दुःसाध्य रोग के श्रेष्ठतम वैध्य हैं, अतः अब हमने आपका ही आश्रय लिया है। प्रभो! हमने समाहित चित्त से जो कुछ अध्ययन किया है, निरन्तर सेवा-शुश्रूषा करके गुरु, ब्राह्मण और वृद्धजनों को प्रसन्न किया है तथा दोषबुद्धि त्यागकर श्रेष्ठ पुरुष, सुहृद्गण, बन्धुवर्ग एवं समस्त प्राणियों की वन्दना की है और अन्नादि को त्यागकर दीर्घकाल तक जल में खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तम के सन्तोष का कारण हो–यही वर माँगते हैं। स्वामिन्! आपकी महिमा का पार न पाकर भी स्वयाम्भुव मनु, स्वयं ब्रह्मा जी, भगवान् शंकर तथा तप और ज्ञान से शुद्धचित्त हुए अन्य पुरुष निरन्तर आपकी स्तुति करते रहते हैं। अतः हम भी अपनी बुद्धि के अनुसार आपका यशोगान करते हैं। आप सर्वत्र समान शुद्ध स्वरूप और परमपुरुष हैं। आप सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! प्रचेताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर शरणागतवत्सल श्रीभगवान् ने प्रसन्न होकर कहा- ‘तथास्तु’। अप्रतिहत प्रभाव श्रीहरि की मधुर मूर्ति के दर्शनों से सभी प्रचेताओं के नेत्र तृप्त नहीं हुए थे, इसलिये वे उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे; तथापि वे अपने परमधाम को चले गये। इसके पश्चात् प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकल कर देखा कि सारी पृथ्वी को ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने ढक दिया है, जो मानो स्वर्ग का मार्ग रोकने के लिये ही इतने बढ़ गये थे। यह देखकर वे वृक्षों पर बड़े कुपित हुए। तब उन्होंने पृथ्वी को वृक्ष, लता आदि से रहित कर देने के लिये अपने मुख से प्रचण्ड वायु और अग्नि को छोड़ा, जैसे कालाग्नि रुद्र प्रलयकाल में छोड़ते हैं। जब ब्रह्मा जी ने देखा कि वे सारे वृक्षों को भस्म कर रहे हैं, तब वे वहाँ आये और प्राचीनबर्हि के पुत्रों को उन्होंने युक्तिपूर्वक समझाकर शान्त किया। फिर जो कुछ वृक्ष वहाँ बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्मा जी के कहने से वह कन्या लाकर प्रचेताओं को दी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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