श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 32-46

चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद


श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- तब नारायणपरायण करुणार्द्रहृदय भगवान् शिव ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रों को यह स्तोत्र सुनाया।

भगवान् रुद्र स्तुति करने लगे- भगवन्! आपका उत्कर्ष उच्चकोटि के आत्मज्ञानियों के कल्याण के लिये-निजानन्द लाभ के लिये है, उससे मेरा भी कल्याण हो। आप सर्वदा अपने निरतिशय परमानन्दस्वरूप में ही स्थित रहते हैं, ऐसे सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपको नमस्कार है। आप पद्मनाभ (समस्त लोकों के आदिकारण) हैं; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र) और इन्द्रियों के नियन्ता, शान्त, एकरस और स्वयंप्रकाश वासुदेव (चित्त के अधिष्ठाता) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। आप ही सूक्ष्म (अव्यक्त), अनन्त और मुखाग्नि के द्वारा सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले अहंकार के अधिष्ठाता संकर्षण तथा जगत् के प्रकृष्ट ज्ञान के उद्गमस्थान बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं; आपको नमस्कार है। आप ही इन्द्रियों के स्वामी, मनस्तत्त्व के अधिष्ठाता भगवान् अनिरुद्ध हैं; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेज से जगत् को व्याप्त करने वाले सूर्यदेव हैं, पूर्ण होने के कारण आपमें वृद्धि और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है।

आप स्वर्ग और मोक्ष के द्वार तथा निरन्तर पवित्र हृदय में रहने वाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सुवर्णरूप वीर्य से युक्त और चातुर्होत्र कर्म के साधन तथा विस्तार करने वाले अग्निदेव हैं; आपको नमस्कार है। आप पितर और देवताओं के पोषक सोम हैं तथा तीनों वेदों के अधिष्ठाता हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं, आप ही समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाले सर्वरस (जल) रूप हैं; आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियों के देह, पृथ्वी और विराट्स्वरूप हैं तथा त्रिलोकी की रक्षा करने वाले मानसिक, एन्द्रियिक और शारीरिक शक्तिस्वरूप वायु (प्राण) हैं; आपको नमस्कार है। आप ही अपने गुण शब्द के द्वारा-समस्त पदार्थों का ज्ञान कराने वाले तथा बाहर-भीतर का भेद करने वाले आकाश हैं तथा आप ही महान् पुण्यों से प्राप्त होने वाले परम तेजोमय स्वर्ग-वैकुण्ठादि लोक हैं; आपको पुनः-पुनः नमस्कार है। आप पितृलोक की प्राप्ति कराने वाले प्रवृत्ति-कर्मरूप और देवलोक की प्राप्ति के साधन निवृत्ति-कर्मरूप हैं तथा आप ही अधर्म के फलस्वरूप दुःखदायक मृत्यु हैं; आपको नमस्कार है।

नाथ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योग के अधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं; आप सब प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के कारण, साक्षात् मन्त्रमूर्ति और महान् धर्मस्वरूप हैं; आपकी ज्ञानशक्ति किसी भी प्रकार कुण्ठित होने वाली नहीं है; आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप ही कर्ता, करण और कर्म- तीनों शक्तियों के एकमात्र आश्रय हैं; आप ही अहंकार के अधिष्ठाता रुद्र हैं; आप ही ज्ञान और क्रियास्वरूप हैं तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी-चार प्रकार की वाणी की अभिव्यक्ति होती है; आपको नमस्कार है।

प्रभो! हमें आपके दर्शनों की अभिलाषा है; अतः आपके भक्तजन जिसका पूजन करते हैं और जो आपके निजजनों को अत्यन्त प्रिय है, अपने उस अनूप रूप की आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणों से समस्त इन्द्रियों को तृप्त करने वाला है। वह वर्षाकालीन मेघ के समान स्निग्ध श्याम और सम्पूर्ण सौन्दर्यों का सार-सर्वस्व है। सुन्दर चार विशाल भुजाएँ, महामनोहर मुखारविन्द, कमलदल के समान नेत्र, सुन्दर भौंहें, सुघड़ नासिका, मनमोहिनी दन्तपंक्ति, अमोल कपोलयुक्त मनोहर मुखमण्डल और शोभावाली समान कर्ण-युगल हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः