श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 16-31

चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन्! मार्ग में प्रचेताओं का श्रीमहादेव जी के साथ किस प्रकार समागम हुआ और उन पर प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें क्या उपदेश किया, वह सारयुक्त बात आप कृपा करके मुझसे कहिये। ब्रह्मर्षे! शिव जी के साथ समागम होना तो देहधारियों के लिय बहुत कठिन है। औरों की तो बात ही क्या है-मुनिजन भी सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर उन्हें पाने के लिये उनका निरन्तर ध्यान ही किया करते हैं, किन्तु सहज में पाते नहीं। यद्यपि भगवान् शंकर आत्माराम हैं, उन्हें अपने लिये न कुछ करना है, न पाना, तो भी इस लोकसृष्टि की रक्षा के लिये वे अपनी घोररूपा शक्ति (शिवा) के साथ सर्वत्र विचरते रहते हैं।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! साधुस्वभाव प्रचेतागण पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर तपस्या में चित्त लगा पश्चिम की ओर चल दिये। चलते-चलते उन्होंने समुद्र के समान विशाल एक सरोवर देखा। वह महापुरुषों के चित्त के समान बड़ा ही स्वच्छ था तथा उसमें रहने वाले मत्स्यादि जलजीव भी प्रसन्न जान पड़ते थे। उसमें नीलकमल, लालकमल, रात में, दिन में और सायंकाल में खिलने वाले कमल तथा इन्दीवर आदि अन्य कई प्रकार के कमल सुशोभित थे। उसके तटों पर हंस, सारस, चकवा और कारण्डव आदि जलपक्षी चहक रहे थे। उसके चारों ओर तरह-तरह के वृक्ष और लताएँ थीं, उन पर मतवाले भौंरे गूँज रहे थे। उसकी मधुर ध्वनि से हर्षित होकर मानो उन्हें रोमांच हो रहा था। कमलकोश के परागपुंज वायु के झरोकों से चारों ओर उड़ रहे थे। मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा है। वहाँ मृदंग, पणव आदि बाजों के साथ अनेकों दिव्य राग-रागिनियों के क्रम से गायन की मधुर ध्वनि सुनकर उन राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इतने में ही उन्होंने देखा कि देवाधिदेव भगवान् शंकर अपने अनुचरों के सहित उस सरोवर से बाहर आ रहे हैं। उनका शरीर तपी हुई सुवर्णराशि के समान कान्तिमान् है, कण्ठ नीलवर्ण है तथा तीन विशाल नेत्र हैं। वे अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये उद्यत हैं। अनेकों गन्धर्व उनका सुयश गा रहे हैं। उनका सहसा दर्शन पाकर प्रचेताओं को बड़ा कुतूहल हुआ और उन्होंने शंकर जी के चरणों में प्रणाम किया। तब शरणागत भयहारी धर्मवत्सल भगवान् शंकर ने अपने दर्शन से प्रसन्न हुए उन धर्मज्ञ और शीलसम्पन्न राजकुमारों से प्रसन्न होकर कहा।

श्रीमहादेव जी बोले- तुम लोग राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी मुझे मालूम है। इस समय तुम लोगों पर कृपा करने के लिये ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है। जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसंज्ञकपुरुष-इन दोनों के नियामक भगवान् वासुदेव की साक्षात् शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है। अपने वर्णाश्रम धर्म का भलीभाँति पालन करने वाला पुरुष सौ जन्म के बाद ब्रह्मा के पद को प्राप्त होता है और इससे भी अधिक पुण्य होने पर वह मुझे प्राप्त होता है। परन्तु जो भगवान् का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्यु के बाद ही सीधे भगवान् विष्णु के उस सर्वप्रपंचातीत परमपद को प्राप्त हो जाता है, जिसे रुद्ररूप में स्थित मैं तथा अन्य आधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकार की समाप्ति के बाद प्राप्त करेंगे। तुम लोग भगवद्भक्त होने के नाते मुझे भगवान् के समान ही प्यारे हो। इसी प्रकार भगवान् के भक्तों को भी मुझसे बढ़कर और कोई कभी प्रिय नहीं होता। अब मैं तुम्हें एक बड़ा ही पवित्र, मंगलमय और कल्याणकारी स्तोत्र सुनाता हूँ। इसका तुम लोग शुद्धभाव से जप करना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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