अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद
सत्यव्रत! इसके बाद जब तक ब्रह्मा जी की रात रहेगी, तब तक मैं ऋषियों के साथ तुम्हें उस नाव में बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्र में विचरण करूँगा। उस समय जब तुम प्रश्न करोगे, तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रह से मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदय में प्रकट हो जायेगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे।' भगवान राजा सत्यव्रत को यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये। अतः अब राजा सत्यव्रत उसी समय की प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान ने आज्ञा दी थी। कुशों का अग्रभाग पूर्व की ओर करके राजर्षि सत्यव्रत उन पर पूर्वोत्तर मुख से बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान के चरणों का चिन्तन करने लगे। इतने में ही भगवान का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजा ने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ रहा है। प्रलयकाल के भयंकर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी। तब राजा ने भगवान की आज्ञा का स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजों को लेकर सप्तर्षियों को लेकर उस पर सवार हो गये। सप्तर्षियों ने बड़े प्रेम से राजा सत्यव्रत से कहा- ‘राजन! तुम भगवान का ध्यान करो। वे ही हमें इस संकट से बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे’। उनकी आज्ञा से राजा ने भगवान का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्र में मत्स्य के रूप में भगवान प्रकट हुए। मत्स्य भगवान का शरीर सोने के समान देदीप्यमान था और शरीर का विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीर में एक बड़ा भारी सींग भी था। भगवान ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकि नाग के द्वारा भगवान के सींग में बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रत ने प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति की। राजा सत्यव्रत ने कहा- 'प्रभो! संसार के जीवों का आत्मज्ञान अनादि अविद्या से ढक गया है। इसी कारण वे संसार के अनेकानेक क्लेशों के भार से पीड़ित हो रहे हैं। जब अनायास ही आपके अनुग्रह से वे आपकी शरण में पहुँच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धन से छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देने वाले परमगुरु आप ही हैं। यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मों से बँधा हुआ है। वह सुख की इच्छा से दुःखप्रद कर्मों का अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवा से उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परमगुरु आप मेरे हृदय की गाँठ काट दें। जैसे अग्नि में तपाने से सोने-चाँदी के मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवा से जीव अपने अन्तःकरण का अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनों के भी परमगुरु हैं। अतः आप ही हमारे भी गुरु बनें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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