श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 49-61

अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 49-61 का हिन्दी अनुवाद


वे सब यदि स्वतन्त्र रूप से एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपा के दस हजारवें अंश के अंश की भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो! आप ही सर्वशक्तिमान हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। जैसे कोई अंधा अंधे को ही अपना पथ प्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानी को ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्य के समान स्वयं प्रकाश और समस्त इन्द्रियों के प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्व के जिज्ञासु आपको ही गुरुरूप में वरण करते हैं। अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियों को जिस ज्ञान का उपदेश करता है, वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकार की अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परन्तु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञान का उपदेश करते हैं, जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।

आप सारे लोक के सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान और अभीष्ट की सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है। फिर भी कामनाओं के बन्धन में जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें इस बात का पता ही नहीं है कि आप उनके हृदय में ही विराजमान हैं। आप देवताओं के भी आराध्यदेव, परमपूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करने के लिये आपकी शरण में आया हूँ। भगवन्! आप परमार्थ को प्रकाशित करने वाली अपनी वाणी के द्वारा मेरे हृदय की ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूप को प्रकाशित कीजिये।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब राजा सत्यव्रत ने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्य रूपधारी पुरुषोत्तम भगवान ने प्रलय के समुद्र में विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्व का उपदेश किया।

भगवान ने राजर्षि सत्यव्रत को अपने स्वरूप के सम्पूर्ण रहस्य का वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग से परिपूर्ण दिव्य पुराण का उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं।

सत्यव्रत ने ऋषियों के साथ नाव में बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्व का श्रवण किया। इसके बाद जब पिछले प्रलय का अन्त हो गया और ब्रह्मा जी की नींद टूटी, तब भगवान ने हयग्रीव असुर को मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्मा जी को दे दिये। भगवान की कृपा से राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञान से संयुक्त होकर इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए। अपनी योगमाया से मत्स्यरूप धारण करने वाले भगवान विष्णु और राजर्षि सत्यव्रत का यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है।

जो मनुष्य भगवान के इस अवतार का प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगति की प्राप्ति होती है। प्रलयकालीन समुद्र में जब ब्रह्मा जी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुख से निकली हुई श्रुतियों को चुराकर हयग्रीव दैत्य पाताल में ले गया था। भगवान ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्मा जी को लौटा दीं एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियों को ब्रह्मतत्त्व का उपदेश किया। उस समस्त जगत के परमकारण लीला मत्स्य भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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