श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 17-31

अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद


आश्रम पर लाने के बाद एक रात में ही वह मछली उस कमण्डलु में इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछली ने राजा से कहा- ‘अब तो इस कमण्डलु में मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अतः मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक र सकूँ’। राजा सत्यव्रत ने मछली को कमण्डलु से निकालकर एक बहुत बड़े पानी के मटके में रख दिया। परन्तु वहाँ डालने पर वह मछली दो ही घड़ी में तीन हाथ बढ़ गयी। फिर उसने राजा सत्यव्रत से कहा- ‘राजन! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारी शरण में हूँ, इसलिये मेरे रहने योग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो।'

परीक्षित! सत्यव्रत ने वहाँ से उस मछली को उठाकर एक सरोवर में डाल दिया। परन्तु वह थोड़ी ही देर में इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्य का आकार धारण कर उस सरोवर के जल को घेर लिया और कहा- ‘राजन! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवर का जल भी मेरे सुखपूर्वक रहने के लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवर में रख दीजिये। मत्स्य भगवान के इस प्रकार कहने पर वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जल वाले सरोवरों में ले गये; परन्तु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते। अन्त में उन्होंने उस लीला मत्स्य को समुद्र में छोड़ दिया।

समुद्र में डालते समय मत्स्य भगवान ने सत्यव्रत से कहा- ‘वीर! समुद्र में बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायेंगे, इसलिये आप मुझे समुद्र के जल में मत छोड़िये’।

मत्स्य भगवान की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा- ‘मत्स्य का रूप धारण करके मुझे मोहित करने वाले आप कौन हैं? आपने एक ही दिन में चार सौ कोस के विस्तार का सरोवर घेर लिया। आज तक ऐसी शक्ति रखने वाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था। अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवों पर अनुग्रह करने के लिये ही आपने जलचर का रूप धारण किया है।

पुरुषोत्तम! आप जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो! हम शरणागत भक्तों के लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं। यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियों के अभ्युदय के लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्य से ग्रहण किया है। कमलनयन प्रभो! जैसे देहादि अनात्म पदार्थों में अपनेपन का अभिमान करने वाले संसारी पुरुषों का आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणों की शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके अहैतुक प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान अपने अनन्य प्रेमी भक्तों पर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगत्पति मत्स्य भगवान ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रत की यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करने के लिये, साथ ही कल्पान्त के प्रलयकालीन समुद्र में विहार करने के लिये उनसे कहा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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