श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 37-43

सप्तम स्कन्ध: नवमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 37-43 का हिन्दी अनुवाद


रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नाम के दो बड़े बलवान् दैत्य थे। जब वे वेदों को चुराकर ले गये, तब आपने हयग्रीव-अवतार ग्रहण किया और उन दोनों को मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्मा जी को लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यन्त प्रिय शरीर है-महात्मा लोग इस प्रकार वर्णन करते हैं।

पुरुषोत्तम! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन तथा विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं। इन अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके धर्मों की रक्षा करते हैं। कलियुग में आप छिपकर गुप्त रूप से ही रहते हैं, इसलिये आपक एक नाम ‘त्रियुग’ भी है।

वैकुण्ठनाथ! मेरे मन की बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओं से तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्रायः ही कामनाओं के कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदि की चिन्ताओं से व्याकुल रहता है। इसे आपकी लीला-कथाओं में तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसे मन से मैं आपके स्वरूप का चिन्तन कैसे करूँ? अच्युत! यह कभी न अघाने वाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसों की ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्री की ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्श की ओर, पेट भोजन की ओर, कान मधुर संगीत की ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगन्ध की ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्य की ओर मुझे खींचते रहते हैं। इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयों की ओर ले जाने को जो लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुष की बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने-अपने शयन गृह में ले जाने के लिये चारों ओर से घसीट रही हों। इस प्रकार यह जीव अपने कर्मों के बन्धन में पड़कर इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरा हुआ है। जन्म से मृत्यु, मृत्यु से जन्म और दोनों के द्वारा कर्म भोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया है-इस प्रकार के भेद-भाव से युक्त होकर किसी से मित्रता करता है तो किसी से शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जाति की यह दुर्दशा देखकर करुणा से द्रवित हो जाइये। इस भव-नदी से सर्वदा पार रहने वाले भगवन्! इन प्राणियों को भी अब पार लगा दीजिये।

जगद्गुरो! आप इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करने वाले हैं। ऐसी अवस्था में इन जीवों को इस भव-नदी के पार उतार देने में आपको क्या प्रयास है? दीनजनों के परम हितैषी प्रभो! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषों के विशेष अनुग्रह के पात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम आपके प्रियजनों की सेवा में लगे रहते हैं, इसलिये पार जाने की हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती। परमात्मान्! इस भव-वैतरणी से पार उतरना दूसरे लोगों के लिये अवश्य ही कठिन है, परन्तु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणी में नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान में मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृत को भी तिरस्कृत करने वाली-परमामृतस्वरूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियों के लिये शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों का मायामय झूठा सुख प्राप्त करने के लिये अपने सिर पर सारे संसार का भार ढोते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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