श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 53-61

सप्तम स्कन्ध: द्वितीयोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 53-61 का हिन्दी अनुवाद


उसने कहा- ‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है। परन्तु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या। उसकी मौज हो तो मुझे ले जाये। इसके बिना मैं अपना यह अधुरा विधुर जीवन, जो दीनता और दुःख से भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा। अभी मेरे अभागे बच्चों के पर भी नहीं जमे हैं। स्त्री के मर जाने पर उन मातृहीन बच्चों को मैं कैसे पालूँगा? ओह! घोंसले में वे अपनी माँ की बाट देख रहे होंगे’।

इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। आँसुओं के मारे उसका गला रूँध गया था। तब तक काल की प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया। मूर्ख रानियों! तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो। यदि तुम लोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी।

हिरण्यकशिपु ने कहा- उस छोटे से बालक की ऐसी ज्ञान पूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दुःख अनित्य एवं मिथ्या हैं। यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई-बन्धुओं ने भी सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की। इसलिये तुम लोग भी अपने लिये या किसी दूसरे के लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन अपना है और कौन अपने से भिन्न? क्या अपना है और क्या पराया? प्राणियों को अज्ञान के कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि का और कोई कारण नहीं है।

नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मा में लगा दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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