श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 14-26

षष्ठ स्कन्ध: तृतीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद


दूतों! मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, वायु, सूर्य, ब्रह्मा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्, सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण एवं तमोगुण से रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता- सब-के-सब सत्त्वप्रधान होने पर भी उनकी माया के अधीन हैं तथा भगवान् कब, क्या किस रूप में करना चाहते हैं- इस बात को नहीं जानते। तब दूसरों की तो बात ही क्या है। दूतो! जिस प्रकार घट, पट आदि रूपवान् पदार्थ अपने प्रकाशक नेत्र को नहीं देख सकते-वैसे ही अन्तःकरण में अपने साक्षी रूप से स्थित परमात्मा को कोई भी प्राणी इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय या वाणी आदि किसी भी साधन के द्वारा नहीं जान सकता। वे प्रभु सबके स्वामी और स्वयं परम स्वतन्त्र हैं। उन्हीं मायापति पुरुषोत्तम के दूत उन्हीं के समान परम मनोहर रूप, गुण और स्वभाव से सम्पन्न होकर इस लोक में प्रायः विचरण किया करते हैं।

विष्णु भगवान् के सुरपूजित एवं परम अलौकिक पार्षदों का दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवान् के भक्तजनों को उनके शत्रुओं से, मुझसे और अग्नि आदि सब विपत्तियों से सर्वथा सुरक्षित रखते हैं। स्वयं भगवान् ने ही धर्म की मर्यादा का निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थिति में मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं। भगवान् के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परमशुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

दूतों! भागवतधर्म का रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं- ब्रह्मा जी, देवर्षि नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वयाम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्म पितामह, बलि, शुकदेव जी और मैं (धर्मराज)। इस जगत् में जीवों के लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य-परम धर्म है कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायों से भगवान् के चरणों में भक्तिभाव प्राप्त कर लें। प्रिय दूतों! भगवान् के नामोच्चारण की महिमा तो देखो, अजामिल जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करने मात्र से मृत्युपाश से छुटकारा पा गया। भगवान् के गुण, लीला और नामों का भलीभाँति कीर्तन मनुष्यों के पापों का सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिल ने मरने के समय चंचलचित्त से अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया। उस नामाभासमात्र से ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्ति की प्राप्ति भी हो गयी। बड़े-बड़े विद्वानों की बुद्धि कभी भगवान् की माया से मोहित हो जाती है। वे कर्मों के मीठे-मीठे फलों का वर्णन करने वाली अर्थवादरूपिणी वेदवाणी में ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञ-यागादि बड़े-बड़े कर्मों में ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नाम की महिमा को नहीं जानते। यह कितने खेद की बात है।

प्रिय दूतों! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्त में ही सम्पूर्ण अन्तःकरण से अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्ड के पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाये, तो उसे भगवान् का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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