श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 57-68

षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 57-68 का हिन्दी अनुवाद


इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषों की सेवा की थी। अहंकार तो इसमें था ही नहीं। यह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और किसी के गुणों में दोष नहीं ढूँढता था।

एक दिन यह ब्राह्मण अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा। लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो बहुत कामी और निर्लज्ज है, शराब पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। नशे के कारण उसकी आँखें नाच रही हैं, वह अर्द्धनग्न अवस्थाओं में हो रही है। वह शूद्र उस वेश्या के साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरह की चेष्टाएँ करके उसे प्रसन्न करता है।

निष्पाप पुरुषो! शूद्र की भुजाओं में अंगरागादि कामोद्दीपक वस्तुएँ लगी हुई थीं और वह उनसे उस कुलटा का आलिंगन कर रहा था। अजामिल उन्हें इस अवस्था में देखकर सहसा मोहित और काम के वश हो गया। यद्यपि अजामिल ने अपने धैर्य और ज्ञान के अनुसार अपने कामवेग से विचलित मन को रोकने की बहुत-बहुत चेष्टाएँ कीं, परन्तु पूरी शक्ति लगा देने पर भी वह अपने मन को रोकने में असमर्थ रहा। उस वेश्या को निमित्त बनाकर काम-पिशाच ने अजामिल के मन को ग्रस लिया। इसकी सदाचार और शास्त्रसम्बन्धी चेतना नष्ट हो गयी। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया।

अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह ब्राह्मण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो। उस स्वच्छन्दचारिणी कुलटा की तिरछी चितवन ने इसके मन को ऐसा लुभा लिया कि इसने अपने कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया। इसके पाप की भी भला कोई सीमा है। यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता। उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता।

इस पापी ने शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके स्वच्छन्द आचरण किया है। यह सत्पुरुषों के द्वारा निन्दित है। इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया है, इसका सारा जीवन ही पापमय है। इसने अब तक अपने पापों का कोई प्रायश्चित भी नहीं किया है। इसलिये अब हम इस पापी को दण्डपाणि भगवान् यमराज के पास ले जायँगे। वहाँ यह अपने पापों का दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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