श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 44-56

षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद


निष्पाप पुरुषों! जो प्राणी कर्म करते हैं, उनका गुणों से सम्बन्ध रहता ही है। इसीलिये सभी से कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देहवान् होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता। इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है।

देवशिरोमणियो! सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों के भेद के कारण इस लोक में भी तीन प्रकार के प्राणी दीख पड़ते हैं-पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य-पाप दोनों से युक्त अथवा सुखी, दुःखी और सुख-दुःख दोनों से युक्त; वैसे ही परलोक में भी उनकी त्रिविधता का अनुमान किया जाता है। वर्तमान समय ही भूत और भविष्य का अनुमान करा देता है। वैसे ही वर्तमान जन्म के पाप-पुण्य भी भूत और भविष्य-जन्मों के पाप-पुण्य का अनुमान करा देते हैं। हमारे स्वामी अजन्मा भगवान् सर्वज्ञ यमराज सबके अन्तःकरणों में ही विराजमान हैं। इसलिये वे अपने मन से ही सबके पूर्व रूपों को देख लेते हैं। वे साथ ही उनके भावी स्वरूप का भी विचार कर लेते हैं। जैसे सोया हुआ अज्ञानी पुरुष स्वप्न के समय प्रतीत हो रहे कल्पित शरीर को ही अपना वास्तविक शरीर समझता है, सोये हुए अथवा जागने वाले शरीर को भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने पूर्व जन्मों की याद भूल जाता है और वर्तमान शरीर के सिवा पहले और पिछले शरीरों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता।

सिद्धपुरुषो! जीव इस शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियों से लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है, पाँच ज्ञानेन्द्रियों से रूप-रस आदि पाँच विषयों का अनुभव करता है और सोलहवें मन के साथ सत्रहवाँ वह स्वयं मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय-इन तीनों के विषयों को भोगता है। जीव का यह सोलह कला और सत्त्वादि तीन गुणों वाला लिंग शरीर अनादि है। यही जीव को बार-बार हर्ष, शोक, भय और पीड़ा देने वाले जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालता है। जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओं के अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं। वैसी स्थिति में वह रेशम के कीड़े के समान अपने को कर्म के जाल में जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोह का शिकार बन जाता है। कोई शरीरधारी जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रत्येक प्राणी के स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते हैं। जीव अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यमय संस्कारों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है। उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ कभी उसे माता के-जैसा (स्त्रीरूप) बना देती हैं, तो कभी पिता के-जैसा (पुरुषरूप)। प्रकृति का संसर्ग होने से ही पुरुष अपने को अपने वास्तविक स्वरूप के विपरीत लिंग शरीर मान बैठा है। यह विपर्यय भगवान् के भजन से शीघ्र ही दूर हो जाता है।

देवताओं! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था। ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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