षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध:अष्टादश अध्यायः श्लोक 48-63 का हिन्दी अनुवाद
प्रिये! इस व्रत का नाम ‘पुंसवन’ है। यदि एक वर्ष तक तुम इसे बिना किसी त्रुटि के पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोख से इन्द्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा। परीक्षित! दिति बड़ी मनस्वी और दृढ़ निश्चय वाली थी। उसने ‘बहुत ठीक’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब दिति अपनी कोख में भगवान् कश्यप का वीर्य और जीवन में उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमों का पालन करने लगी। प्रिय परीक्षित! देवराज इन्द्र अपनी मौसी दिति का अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानी से अपना वेष बदलकर दिति के आश्रम पर आये और उसकी सेवा करने लगे। वे दिति के लिये प्रतिदिन समय-समय पर वन से फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवा में समर्पित करते। राजन्! जिस प्रकार बहेलिया हरिन को मारने के लिये हरिन की-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति के व्रत पालन की त्रुटि पकड़ने के लिये उसकी सेवा करने लगे। सर्वदा पैनी दृष्टि रखने पर भी उन्हें उसके व्रत में किसी प्रकार की त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा-टहल में लगे रहे। अब तो इन्द्र को बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे- "मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो?" दिति व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी। विधाता ने भी उसे मोह में डाल दिया। इसलिये एक दिन सन्ध्या के समय जूठे मुँह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी। योगेश्वर इन्द्र ने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा। वे योग बल से झटपट सोयी हुई दिति के गर्भ में प्रवेश कर गये। उन्होंने वहाँ जाकर सोने के समान चमकते हुए गर्भ के वज्र के द्वारा सात टुकड़े कर दिये। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ यह कहकर सातों टुकड़ों में से एक-एक के और भी सात टुकड़े कर दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज