श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 41-54

षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 41-65 का हिन्दी अनुवाद


वह भागवत धर्म इतना शुद्ध है कि उसमें सकाम धर्मों के समान मनुष्यों की वह विषम बुद्धि नहीं होती कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह तू है और यह तेरा है।’ इसके विपरीत जिस धर्म के मूल में ही विषमता का बीज बो दिया जाता है, वह तो अशुद्ध, नाशवान् और अधर्म बहुल होता है। सकाम धर्म अपना और दूसरे का भी अहित करने वाला है। उससे अपना या पराया-किसी का कोई प्रयोजन और हित सिद्ध नहीं होता। प्रत्युत सकाम धर्म से जब अनुष्ठान करने वाले का चित्त दु:खता है, तब आप रुष्ट होते हैं और जब दूसरे का चित्त दु:खता है, तब वह धर्म नहीं रहता-अधर्म हो जाता है।

भगवन्! आपने जिस दृष्टि से भागवत धर्म का निरूपण किया है, वह कभी परमार्थ से विचलित नहीं होती। इसलिये जो संत पुरुष चर-अचर समस्त प्राणियों में समदृष्टि रखते हैं, वे ही उसका सेवन करते हैं। भगवन्! आपके दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है; क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चाण्डाल भी संसार से मुक्त हो जाता है। भगवन्! इस समय आपके दर्शनमात्र से ही मेरे अन्तःकरण का सारा मल धुल गया है, सो ठीक ही है। क्योंकि आपके अनन्य प्रेमी भक्त देवर्षि नारद जी ने जो कुछ कहा है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है।

हे अनन्त! आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा हैं। अतएव संसार के प्राणी जो कुछ करते हैं, वह सब आप जानते ही रहते हैं। इसलिये जैसे जुगनू सूर्य को प्रकाशित नहीं कर सकता, वैसे ही परम गुरु आपसे मैं क्या निवेदन करूँ। भगवन! आपकी ही अध्यक्षता में सारे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं। कुयोगीजन भेददृष्टि के कारण आपका वास्तविक स्वरूप नहीं जान पाते। आपका स्वरूप वास्तव में अत्यन्त शुद्ध है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी चेष्टा से शक्ति प्राप्त करके ही ब्रह्मा आदि लोकपालगण चेष्टा करने में समर्थ होते हैं। आपकी दृष्टि से जीवित होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। यह भूमण्डल आपके सिर पर सरसों के दाने के समान जान पड़ता है। आप सहस्रशीर्षा भगवान् को बार-बार नमस्कार करता हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब विद्याधरों के अधिपति चित्रकेतु ने अनन्त भगवान् की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे कहा।

श्रीभगवान ने कहा- चित्रकेतो! देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा ने तुम्हें मेरे सम्बन्ध में जिस विद्या का उपदेश दिया है, उससे और मेरे दर्शन से तुम भलीभाँति सिद्ध हो चुके हो। मैं ही समस्त प्राणियों के रूप में हूँ, मैं ही उनका आत्मा हूँ और मैं ही पालनकर्ता भी हूँ। शब्दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म दोनों ही मेरे सनातन रूप हैं। आत्मा कार्य-कारणात्मक जगत् में व्याप्त है और कार्य-कारणात्मक जगत आत्मा में स्थित है तथा इन दोनों में मैं अधिष्ठान रूप से व्याप्त हूँ और मुझमें ये दोनों कल्पित हैं। जैसे स्वप्न में सोया हुआ पुरुष स्वप्नान्तर होने पर समपूर्ण जगत् को अपने में ही देखता है और स्वप्नान्तर टूट जाने पर स्वप्न में ही जागता है तथा अपने को संसार के एक कोने में स्थित देखता है, परन्तु वास्तव में वह भी स्वप्न ही है, वैसे ही जीव की जाग्रत आदि अवस्थाएँ परमेश्वर की ही माया हैं-यों जानकर सबके साक्षी मायातीत परमात्मा का ही स्मरण करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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