श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 30-40

षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 30-40 का हिन्दी अनुवाद


उन्होंने देखा कि भगवान् शेषजी सिद्धेश्वरों के मण्डल में विराजमान हैं। उनका शरीर कमलनाल के समान गौरवर्ण है। उस पर नीले रंग का वस्त्र फहरा रहा है। सिर पर किरीट, बाँहों में बाजूबंद, कमर में करधनी और कलाई में कंगन आदि आभूषण चमक रहे हैं। नेत्र रतनारे हैं और मुख पर प्रसन्नता छा रही है।

भगवान् शेष का दर्शन करते ही राजर्षि चित्रकेतु के सारे पाप नष्ट हो गये। उनका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल हो गया। हृदय में भक्तिभाव की बाढ़ आ गयी। नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। शरीर का एक-एक रोम खिल उठा। उन्होंने ऐसी ही स्थिति में आदिपुरुष भगवान् शेष को नमस्कार किया। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू टप-टप गिरते जा रहे थे। इससे भगवान् शेष के चरण रखने की चौकी भीग गयी। प्रेमोद्रेक के कारण उनके मुँह से एक अक्षर भी न निकल सका। वे बहुत देर तक शेष भगवान् की कुछ भी स्तुति न कर सके। थोड़ी देर बाद उन्हें बोलने की कुछ-कुछ शक्ति प्राप्त हुई। उन्होंने विवेक बुद्धि से मन को समाहित किया और सम्पूर्ण इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को रोका। फिर उन जगद्गुरु की, जिनके स्वरूप का पांचरात्र आदि भक्तिशास्त्रों में वर्णन किया गया है, इस प्रकार स्तुति की।

चित्रकेतु ने कहा- अजित! जितेन्द्रिय एवं समदर्शी साधुओं ने आपको जीत लिया है। आपने भी अपने सौन्दर्य, माधुर्य, कारुण्य आदि गुणों से उनको अपने वश में कर लिया है। अहो, आप धन्य हैं! क्योंकि जो निष्कामभाव से आपका भजन करते हैं, उन्हें आप करुणापरवश होकर अपने-आपको भी दे डालते हैं। भगवन्! जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आपके लीला-विलास हैं। विश्वनिर्माता ब्रह्मा आदि आपके अंश के भी अंश हैं। फिर भी वे पृथक्-पृथक् अपने को जगत्कर्ता मानकर झूठमूठ एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं। नन्हे-से नन्हे परमाणु से लेकर बड़े-से-बड़े महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण वस्तुओं के आदि, अन्त, मध्य में आप ही विराजमान हैं तथा स्वयं आप आदि, अन्त और मध्य से रहित हैं। क्योंकि किसी भी पदार्थ के आदि और अन्त में जो वस्तु रहती है, वही मध्य में भी रहती है। यह ब्रह्माणकोष, जो पृथ्वी आदि एक-से-एक दस गुने सात आवरणों से घिरा हुआ है, अपने ही समान दूसरे करोड़ों ब्राह्मणों के सहित आपमें एक परमाणु के समान घूमता रहता है और फिर भी उसे आपकी सीमा का पता नहीं हैं। इसिलये आप अनन्त हैं। जो नरपशु केवल विषय भोग ही चाहते हैं, वे आपका भजन न करके आपके विभूतिस्वरूप इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं।

प्रभो! जैसे राजकुल का नाश होने के पश्चात् उसके अनुयायियों की जीविका भी जाती रहती है, वैसे ही क्षुद्र उपास्यदेवों का नाश होने पर उनके दिये हुए भोग भी नष्ट हो जाते हैं।

परमात्मन्! आप ज्ञानस्वरूप और निर्गुण हैं। इसलिये आपके प्रति की हुई सकाम भावना भी अन्यान्य कर्मों के समान जन्म-मृत्युरूप फल देने वाली नहीं होती, जैसे भुने हुए बीजों से अंकुर नहीं उगते। क्योंकि जीव को जो सुख-दुःख आदि द्वन्द प्राप्त होते हैं, वे सत्त्वादि गुणों से ही होते हैं, निर्गुण से नहीं। हे अजित! जिस समय आपने विशुद्ध भागवत धर्म का उपदेश किया था, उसी समय आपने सबको जीत लिया। क्योंकि अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह न रखने वाले, किसी भी वस्तु में अहंता-ममता न करने वाले आत्माराम सनकादि परमर्षि भी परमसाम्य और मोक्ष प्राप्त करने के लिये उसी भागवत धर्म का आश्रय लेते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः