श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 46-55

षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 46-55 का हिन्दी अनुवाद


धाय ने सोते हुए बालक के पास जाकर देखा कि उसके नेत्रों की पुतलियाँ उलट गयी हैं। प्राण, इन्द्रिय और जीवात्मा ने भी उसके शरीर से विदा ले ली है। यह देखते ही ‘हाय रे! मैं मारी गयी!’ इस प्रकार कहकर वह धरती पर गिर पड़ी।

धाय अपने दोनों हाथों से छाती पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वर में जोर-जोर से रोने लगी। उसका रोना सुनकर महारानी कृतद्युति जल्दी-जल्दी अपने पुत्र के शयनगृह में पहुँचीं और उन्होंने देखा कि मेरा छोटा-सा बच्चा अकस्मात् मर गया है। तब वे अत्यन्त शोक के कारण मुर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उनके सिर के बाल बिखर गये और शरीर पर के वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये। तदनन्तर महारानी का रुदन सुनकर रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे। वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर झूठमूठ रोने का ढोंग करने लगीं।

जब राजा चित्रकेतु को पता लगा कि मेरे पुत्र की अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब अत्यन्त स्नेह के कारण शोक के आवेग से उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वे धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणों के साथ मार्ग में गिरते-पड़ते मृत बालक के पास पहुँचे और मुर्च्छित होकर उसके पैरों के पास गिर पड़े। उनके केश और वस्त्र इधर-उधर बिखर गये। वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे। आँसुओं की अधिकता से उनका गला रूँध गया और वे कुछ भी बोल न सके। पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतु को अत्यन्त शोकाकुल और इकलौते नन्हें-से बच्चे को मरा हुआ देख भाँति-भाँति से विलाप करने लगीं। उनका यह दुःख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये।

महारानी के नेत्रों से इतने आँसू बह रहे थे कि वे उनकी आँखों का अंजन लेकर केसर और चन्दन से चर्चित वक्षःस्थल को भिगोने लगे। उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिर रहे थे। इस प्रकार वे पुत्र के लिये कुररी पक्षी के समान उच्च स्वर में विवध प्रकार से विलाप कर रही थीं। वे कहने लगीं- ‘अरे विधाता! सचमुच तू बड़ा मूर्ख है, जो अपनी सृष्टि के प्रतिकूल चेष्टा करता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायें। यदि वास्तव में तेरे स्वभाव में ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू जीवों का अमर शत्रु है। यदि संसार में प्राणियों के जीवन-मरण का कोई क्रम न रहे, तो वे अपने प्रारब्ध के अनुसार जन्मते-मरते रहेंगे। फिर तेरी आवश्यकता ही क्या है। तूने सम्बन्धियों में स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि वे तेरी सृष्टि को बढ़ायें? परन्तु तू इस प्रकार बच्चों को मारकर अपने किये-कराये पर अपने हाथों पानी फेर रहा है’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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