श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 14-23

षष्ठ स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद


राजन! देवराज इन्द्र उसके भय से दिशाओं और आकाश में भागते फिरे। अन्त में कहीं भी शरण न मिलने के कारण उन्होंने पूर्व और उत्तर कोने में स्थित मानसरोवर में शीघ्रता से प्रवेश किया। देवराज इन्द्र मानसरोवर के कमलनाल के तन्तुओं में एक हजार वर्षों तक छिपकर निवास करते रहे और सोचते रहे कि ब्रह्महत्या से मेरा छुटकारा कैसे होगा। इतने दिनों तक उन्हें भोजन के लिये किसी प्रकार की सामग्री न मिल सकी। क्योंकि वे अग्नि देवता के मुख से भोजन करते हैं और अग्नि देवता जल के भीतर कमल तन्तुओं में जा नहीं सकते थे।

जब तक देवराज इन्द्र कमलतन्तुओं में रहे, तब तक अपनी विद्या, तपस्या और योगबल के प्रभाव से राजा नहुष स्वर्ग का शासन करते रहे। परन्तु जब उन्होंने सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से अंधे होकर इन्द्रपत्नी शची के साथ अनाचार करना चाहा, तब शची ने उनसे ऋषियों का अपराध करवाकर उन्हें शाप दिला दिया-जिससे वे साँप हो गये। तदनन्तर जब सत्य के परमपोषक भगवान का ध्यान करने से इन्द्र के पाप नष्टप्राय हो गये, तब ब्राह्मणों के बुलवाने पर वे पुनः स्वर्गलोक में गये। कमलवनविहारिणी विष्णुपत्नी लक्ष्मी जी इन्द्र की रक्षा कर रही थीं और पूर्वोक्त दिशा के अधिपति रुद्र ने पाप को पहले ही निस्तेज कर दिया था, जिससे वह इन्द्र पर आक्रमण नहीं कर सका।

परीक्षित! इन्द्र के स्वर्ग में आ जाने पर ब्रह्मर्षियों ने वहाँ आकर भगवान् की आराधना के लिये इन्द्र को अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा दी, उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया। जब वेदवादी ऋषियों ने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया तथा देवराज इन्द्र ने उस यज्ञ के द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान् की आराधना की, तब भगवान की आराधना के प्रभाव से वृत्रासुर के वध की वह बहुत बड़ी पाप राशि इस प्रकार भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदय से कुहरे का नाश हो जाता है। जब मरीचि आदि मुनीश्वरों ने उनसे विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ कराया, तब उसके द्वारा सनातन पुरुष यज्ञपति भगवान की आराधना करके इन्द्र सब पापों से छूट गये और पूर्ववत फिर पूजनीय हो गये।

परीक्षित! इस श्रेष्ठ आख्यान में इन्द्र की विजय, उनकी पापों से मुक्ति और भगवान के प्यारे भक्त वृत्रासुर का वर्णन हुआ है। इसमें तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले भगवान् के अनुग्रह आदि गुणों का संकीर्तन है। यह सारे पापों को धो बहाता है और भक्ति को बढ़ाता है। बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि वे इस इन्द्र सम्बन्धी आख्यान को सदा-सर्वदा पढ़ें और सुनें। विशेषतः पर्वों के अवसर पर तो अवश्य ही इसका सेवन करें। यह धन और यश को बढ़ाता है, सारे पापों से छुड़ाता है, शत्रु पर विजय प्राप्त कराता है तथा आयु और मंगल की अभिवृद्धि करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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