श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 12-23

पंचम स्कन्ध: विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद


(और कहते हैं-) ‘जो कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में अपनी किरणों से विभाग करके देवता, पितर और सम्पूर्ण प्राणियों को अन्न देते हैं, वे चन्द्र देव हमारे राजा (रंजन करने वाले) हों’।

इसी प्रकार मदिरा के समुद्र से आगे उससे दूने परिमाण वाला कुशद्वीप है। पूर्वोक्त द्वीपों के समान यह भी अपने ही समान विस्तार वाले घृत के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें भगवान् का रचा हुआ एक कुशों का झाड़ है, उसी से इन द्वीप का नाम निश्चित हुआ है। वह दूसरे अग्नि देव के समान अपनी कोमल शिखाओं की कान्ति से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता रहता है।

राजन्! इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज हिरण्यरेता थे। उन्होंने इसके सात विभाग करके उनमें से एक-एक अपने सात पुत्र वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विवक्त और वामदेव को दे दिया और स्वयं तप करने चले गये। उनकी सीमाओं को निश्चय करने वाले सात पर्वत हैं और सात ही नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम चक्र, चतुःश्रृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविण हैं। नदियों के नाम हैं- रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतिविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला। इनके जल में स्नान करके कुशद्वीपवासी कुशल, कोविद, अभियुक्त और कुलक वर्ण के पुरुष अग्निस्वरूप भगवान् हरि का यज्ञादि कर्मकौशल के द्वारा पूजन करते हैं। (तथा इस प्रकार स्तुति करते हैं-) ‘अग्ने! परब्रह्म को साक्षात् हवि पहुँचाने वाले हैं; अतः भगवान् के अंगभूत देवताओं के यजन द्वारा आप उन परम पुरुष का ही यजन करें’।

राजन्! फिर घृतसमुद्र से आगे उससे द्विगुण परिमाण वाला क्रौंचद्वीप है। जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसमुद्र से घिरा हुआ है, उसी प्रकार यह अपने ही समान विस्तार वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है। यहाँ क्रौंच नाम का एक बहुत बड़ा पर्वत है, उसी के कारण इसका नाम क्रौंचद्वीप हुआ है। पूर्वकाल में श्रीस्वामी कार्तिकेय जी के शस्त्र प्रहार से इनका कटिप्रदेश और लता-निकुंजादि क्षत-विक्षत हो गये थे, किन्तु क्षीर समुद्र से सींचा जाकर और वरुणदेव से सुरक्षित होकर यह फिर निर्भय हो गया। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज घृतपृष्ठ थे। वे बड़े ज्ञानी थे। उन्होंने इस को सात वर्षों में विभक्त कर उनमें उन्हीं के समान नाम वाले अपने सात उत्तराधिकारी पुत्रों को नियुक्त किया और स्वयं सम्पूर्ण जीवों के अन्तरात्मा, परम मंगलमय कीर्तिशाली भगवान् श्रीहरि के पवन पादारविन्दों की शरण ली।

महाराज घृतपृष्ठ के आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति- ये सात पुत्र थे। उनके वर्षों में सात वर्ष पर्वत और सात ही नदियाँ कही जाती हैं। पर्वतों के नाम शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र हैं तथा नदियों के नाम हैं- अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपपवती, पवित्रवती और शुक्ला। इनके पवित्र और निर्मल जल का सेवन करने वाले वहाँ के पुरुष, ऋषभ, द्रविण और देवक नामक चार वर्ण वाले निवासी जल से भरी हुई अंजलि के द्वारा आपोदेवता (जल के देवता) की उपासना करते हैं। (और कहते हैं-) ‘हे जल देवता! तुम्हें परमात्मा से सामर्थ्य प्राप्त है। तुम भूः, भुवः और स्वः- तीनों लोकों को पवित्र करते हो; क्योंकि स्वरूप से ही पापों का नाश करने वाले हो। हम अपने शरीर से तुम्हारा स्पर्श करते हैं, तुम हमारे अंगों को पवित्र करो’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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