श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 83 श्लोक 10-19

दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितम अध्याय श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद


जाम्बवती ने कहा- द्रौपदी जी! मेरे पिता ऋजराज जाम्बवान को इस बात का पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान सीतापति हैं। इसलिये वे इनसे सत्ताईस दिन तक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़ कर स्यमन्तक मणि के साथ उपहार के रूप में मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हीं की दासी बनी रहूँ।

कालिन्दी ने कहा- द्रौपदी जी! जब भगवान को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणों का स्पर्श करने की आशा-अभिलाषा से तपस्या कर रही हूँ, तब वे अपने सखा अर्जुन के साथ यमुना-तट पर आये और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारने वाली उनकी दासी हूँ।

मित्रविन्दा ने कहा- द्रौपदी जी! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान ने सब राजाओं को जीत लिया और जैसे सिंह झुंड-के-झुंड कुत्तों में से अपना भाग ले जाये, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारकापूरी में ले आये। मेरे भाइयों ने भी मुझे भगवान से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखारने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।

सत्या ने कहा- द्रौपदी जी! मेरे पिताजी ने स्वयंवर में आये हुए राजाओं के बल-पौरुष की परीक्षा के लिये बड़े बलवान और पराक्रमी, तीखे सींग वाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलों ने बड़े-बड़े वीरों का घमंड चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवान ने खेल-खेल में ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरी के बच्चों को पकड़ लेते हैं। इस प्रकार भगवान बल-पौरुष द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरंगिणी सेना और दासियों के साथ द्वारका ले आये। मार्ग में जिन क्षत्रियों ने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवा का अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे।

भद्रा ने कहा- द्रौपदी जी! भगवान मेरे मामा के पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हीं के चरणों में अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजी को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत-सी दासियों के साथ इन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया। मैं अपना परम कल्याण इसी में समझती हूँ कि कर्म के अनुसार मुझे जहाँ जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हीं के चरणकमलों का संस्पर्श प्राप्त होता रहे।

लक्ष्मणा ने कहा- रानीजी! देवर्षि नारद बार-बार भगवान के अवतार और लीलाओं का गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि लक्ष्मी जी ने समस्त लोकपालों का त्याग करके भगवान का ही वरण किया, मेरा चित्त भगवान के चरणों में आसक्त हो गया। साध्वी! मेरे पिता बृहत्सेन मुझ पर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हुआ, तब उन्होंने मेरी इच्छा की पूर्ति के लिये यह उपाय किया। महारानी! जिस प्रकार पाण्डववीर अर्जुन की प्राप्ति के लिये आपके पिता ने स्वयंवर में मत्स्यवेध का आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिता ने भी किया। आपके स्वयंर की अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहर से ढका हुआ था, केवल जल में ही उसकी परछाईं दीख पड़ती थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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