दशम स्कन्ध: सप्तम अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तम अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद
एक दिन की बात है, सती यशोदा जी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलार रहीं थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गये। वे उनका भार न सह सकीं। उन्होंने भार से पीड़ित होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया। इसके बाद उन्होंने भगवान पुरुषोत्तम का स्मरण किया और घर के काम में लग गईं। तृणावर्त नाम का एक दैत्य था। वह कंस का निजी सेवक था। कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। उसने ब्रज-रज से सारे गोकुल को ढक दिया और लोगों की देखने की शक्ति हर ली। उसके अत्यन्त भयंकर शब्द से दसों दिशाऐं काँप उठीं। सारा ब्रज दो घड़ी तक रज और तम से ढका रहा। यशोदा जी ने अपने पुत्र को जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो, श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे। उस समय तृणावर्त ने बवंडर रूप से इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्न और बेसुध हो गये थे। उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था। उस जोर की आँधी और धूल की वर्षा में अपने पुत्र का पता न पाकर यशोदा जी को बड़ा शोक हुआ। वे अपने पुत्र की याद करके बहुत ही दीन हों गयीं और बछड़े के मर जाने पर गाय की जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी। वे पृथ्वी पर गिर पड़ीं। बवंडर के शान्त होने पर जब धूल की वर्षा का वेग कम हो गया, तब यशोदा जी के रोने का शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं। नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को न देखकर उनके हृदय में भी बड़ा सन्ताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। वे फूट-फूटकर रोने लगीं इधर तृणावर्त बवंडर रूप से जब भगवान श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शान्त हो गया। वह अधिक चल न सका। तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशु को अपने से अलग नहीं कर सका। भगवान ने इतने ज़ोर से उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया। उसकी आँखें बाहर निकल आयीं, बोलती बंद हो गयी तथा प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह ब्रज में गिर पड़ा[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पाण्डु देश में सहस्राक्ष नाम के एक राजा थे। वे नर्मदा-तट पर अपनी रानियों के साथ विहार कर रहे थे। उधर से दुर्वासा ऋषि निकले, परन्तु उन्होंने प्रणाम नहीं किया। ऋषि ने शाप दिया - ‘तू राक्षस हो जा।’ जब वह उनके चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाया, तब दुर्वासाजी ने कह दिया - ‘भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह का स्पर्श होते ही तू मुक्त हो जायगा।’ वही राजा तृणावर्त होकर आया था और श्रीकृष्ण का संस्पर्श प्राप्त करके मुक्त हो गया।
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