दशम स्कन्ध: द्वादश अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 33-41 का हिन्दी अनुवाद
उस अजगर के स्थूल शरीर के एक अत्यन्त अद्भुत और महान ज्योति निकली, उस समय उस ज्योति के प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं। वह थोड़ी देर तक तो आकाश में स्थित होकर भगवान के निकलने की प्रतीक्षा करती रही। जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओं के देखते-देखते उन्हीं में समा गयीं। उस समय देवताओं ने फूल बरसाकर, अप्सराओं ने नाचकर, गन्धर्वों ने गाकर, विद्याधरों ने बाजे बजाकर, ब्राह्मणों ने स्तुति-पाठकर और पार्षदों ने जय-जयकार के नारे लगाकर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन किया। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने अघासुर को मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था। उन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मंगलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवों की मंगलध्वनि ब्रह्मा-लोक के पास पहुँच गयी। जब ब्रह्मा जी ने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहन पर चढ़कर वहाँ आये और भगवान श्रीकृष्ण की यह महिमा देखकर आश्चर्यचकित हो गये। परीक्षित! जब वृन्दावन में अजगर वह चाम सूख गया, तब वह ब्रजवासियों के लिए बहुत दिनों तक खेलने की एक अद्भुत गुफ़ा-सी बना रहा। यह जो भगवान ने अपने ग्वालबालों को मृत्यु के मुख से बचाया था और अघासुर को मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान ने अपने कुमार अवस्था में अर्थात पाँचवें वर्ष में ही की थी। ग्वालबालों ने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु गौगण्ड अवस्था अर्थात छठे वर्ष में अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर ब्रज में उसका वर्णन किया। अघासुर मूर्तिमान अघ (पाप) ही था। भगवान के स्पर्शमात्र उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारुप्य-मुक्ति की प्राप्ति हुई, जो पापियों को कभी मिल नहीं सकती। परन्तु यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि मनुष्य-बालक की-सी लीला रचने वाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारण रूप समस्त जगत के एकमात्र विधाता हैं। भगवान श्रीकृष्ण के किसी एक अंग की भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यान के द्वारा एक बार भी हृदय में बैठा ली जाय तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती हैं, जो भगवान के बड़े-बड़े भक्तों को मिलती है। भगवान आत्मानन्द के नित्य साक्षातस्वरूप हैं। माया उनके पास तक नहीं फटक पाती। वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये। क्या अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई संदेह है? सूत जी कहते हैं - शौनकादि ऋषियों! यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने ही राजा परीक्षित को जीवन दान दिया था। उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवन सर्वस्व का यह विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्री शुकदेव जी महाराज से उन्हीं की पवित्र लीला के सम्बन्ध में प्रश्न किया। इसका कारण यह था कि भगवान की अमृतमयी लीला ने परीक्षित के चित्त को अपने वश में कर रखा था । राजा परीक्षित ने पूछा - भगवन! आपने कहा था कि ग्वालबालों ने भगवान की दी हुई पाँचवें वर्ष की लीला ब्रज में छठे वर्ष में जाकर कही। अब इस विषय में आप कृपा करके यह बतलाइये कि एक समय की लीला दूसरे समय में वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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