श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 33 श्लोक 14-37

तृतीय स्कन्ध: त्रयस्त्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयस्त्रिंश अध्यायः श्लोक 14-37 का हिन्दी अनुवाद


त्रिकाल स्नान करने से उनकी घुँघराली अलकें भूरि-भूरि जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या से कारण दुर्बल हो गया। उन्होंने प्रजापति कर्दम के तप और योगबल से प्राप्त अनुपम गार्हस्थ्य सुख को, जिसके लिये देवता तरसते थे, त्याग दिया। जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सुकोमल शय्या से युक्त हाथी-दाँत के पलंग, सुवर्ण के पात्र, सोने के सिंहासन और उन पर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नों की बनी हुई रमणी-मूर्तियों के सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलों से लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षों से सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव और मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था, जहाँ की कमलगन्ध से सुवासित बावलियों में कर्दम जी के साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीड़ा के लिये प्रवेश करने पर उसका (देवहूति का) गर्न्धवगण गुणगान किया करते थे और जिसे पाने के लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं-उस गृहोद्यान की भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्र वियोग से व्याकुल होने के कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया। पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे आत्मज्ञान सम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करने वाली गौ।

वत्स विदुर! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान् हरि का चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनों में ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न घर से भी उपरत हो गयीं। फिर वे, कपिलदेव जी ने भगवान् के जिस ध्यान करने योग्य प्रसन्नवदनारविन्द युक्त स्वरूप का वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयव का तथा उस समग्र रूप का भी चिन्तन करती हुई ध्यान में तत्पर हो गयीं। भगवद्भक्ति के प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित कर्मानुष्ठान से उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार कराने वाले ज्ञान द्वारा चित्त शुद्ध हो जाने पर वे उस सर्वव्यापक आत्मा के ध्यान में मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूप के प्रकाश से मायाजनित आवरण को दूर कर देता है। इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परमब्रह श्रीभगवान् में ही बुद्धि की स्थति हो जाने से उनका जीव भाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशों से मुक्त होकर परमानन्द में निमग्न हो गयीं। अब निरन्तर समाधिस्थ रहने के कारण उनकी विषयों के सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रही-जैसे जागे हुए पुरुष को अपने स्वप्न में देखे हुए शरीर की नहीं रहती।

उनके शरीर का पोषण भी दूसरों के द्वारा ही होता था, किन्तु किसी प्रकार का मानसिक क्लेश न होने के कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैल के कारण धूमयुक्त अग्नि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान् में ही चित्त लगा रहने के कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था।

विदुर जी! इस प्रकार देवहूति जी ने कपिलदेव जी के बताये हुए मार्ग द्वारा थोड़े ही समय में नित्यमुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान् को प्राप्त कर लिया। वीरवर! जिस स्थान पर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकी में ‘सिद्धपद’ नाम से विख्यात हुआ।

साधुस्वभाव विदुर जी! योग साधन के द्वारा उनके शरीर के सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदी के रूप में परिणत हो गया, जो सिद्धगण से सेवित और सब प्रकार कि सिद्धि देने वाली है। महायोगी भगवान् कपिल जी भी माता की आज्ञा ले पिता के आश्रम से ईशानकोण की ओर चले गये। वहाँ स्वयं समुद्र ने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकों को शान्ति प्रदान करने के लिये योगमार्ग का अवलम्बन कर समाधि में स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं।

निष्पाप विदुर जी! तुम्हारे पूछने से मैंने तुम्हें यह भगवान् कपिल और देवहूति का परम पवित्र संवाद सुनाया। यह कपिलदेव जी का मत अध्यात्मयोग का गूढ़ रहस्य है। जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान् गरुड़ध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरि के चरणारविन्दों को प्राप्त करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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