तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 33-50 का हिन्दी अनुवाद
अहो! मेरी इस स्त्रीरूपिणी माया का बल तो देखो, जो अपने भ्रुकुटि-विलासमात्र से बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरों को पैरों से कुचल देती है। जो पुरुष योग के परमपद पर आरुढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवा के प्रभाव से आत्मा-अनात्मा का विवेक हो गया हो, वह स्त्रियों का संग कभी न करे; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुष के लिये नरक का खुला द्वार बताया गया है। भगवान् की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदि के मिस से पास आती है, इसे तिनकों से ढके हुए कुएँ के समान अपनी मृत्यु ही समझे। स्त्री में आसक्त रहने के कारण तथा अन्त समय में स्त्री का ही ध्यान रहने से जीव को स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार स्त्रीयोनि को प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूप में प्रतीत होने वाली मेरी माया को ही धन, पुत्र और गृह आदि देने वाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधे का गान कानों को प्रिय लगने पर भी बेचारे भोले-भाले पशु-पक्षियों को फँसाकर उनके नाश का ही कारण होता है-उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदि को विधाता की निश्चित की हुई अपनी मृत्यु ही जाने। देवि! जीव के उपाधिभूत लिंगदेह के द्वारा पुरुष एक लोक से दूसरे लोक में जाता है और अपने प्रारब्ध कर्मों को भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहों की प्राप्ति के लिये दूसरे कर्म करता रहता है। जीव का उपाधिरूप लिंग शरीर तो मोक्ष पर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मन का कार्यरूप स्थूल शरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन दोनों का परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणी की ‘मृत्यु’ है और दोनों का साथ-साथ प्रकट होना ‘जन्म’ कहलाता है। पदार्थों की उपलब्धि के स्थानरूप इस स्थूल शरीर में जब उनको ग्रहण करने की योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूल शरीर ही मैं हूँ-इस अभिमान के साथ उसे देखना उसका जन्म है। नेत्रों में जब किसी दोष के कारण रूपादि को देखने की योगता नहीं रहती, तभी उनमें रहने वाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखने में असमर्थ हो जाती है और जब नेत्र और उनमें रहने वाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखने में असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनों के साक्षी जीव में भी वह योग्यता नही रहती। अतः मुमुक्ष पुरुष को मरणादि से भय, दीनता अथवा मोह नहीं करना चाहिये। उसे जीव के स्वरूप को जानकर धैर्यपूर्वक निःसंगभाव से विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसार में योग-वैराग्य-युक्त सम्यक् ज्ञानमयी बुद्धि से शरीर को निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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